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कायाकल्प]
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भाँति वह गहने बनवाकर जमा न करती थी, उनका नित्य ब्योहार करती थीं। रोहिणी को आभूषणों से घृणा हो गयी थी, माँग-चोटी की भी परवा न करती! यहाँ तक कि उसने माँग में सेन्दूर डालना छोड़ दिया था। कहती, मुझमें और विधवा में क्या अन्तर है, बल्कि विधवा हमसे हजार दर्जे अच्छी, उसे एक यही रोना है कि पुरुष नहीं। जलन तो नहीं! यहाँ तो जिन्दगी रोने और कुढ़ने में ही कट रही है। मेरे लिए पति का होना न होना दोनों बराबर है, सोहाग लेकर चाटूँ। रही रानी रामप्रिया, उनका विद्या व्यसन अब बहुत कुछ शिथिल हो गया था, गाने की धुन सवार थी, भाँति-भाँति के बाजे मँगाती रहती थी। ठाकुर साहब को भी गाने का कुछ शौक था या अब हो गया हो। किसी न किसी तरह समय निकालकर जा बैठते और उठने का नाम न लेते। रात को अक्सर भोजन भी वहीं कर लिया करते। रामप्रिया उनके लिए स्वयं थाली परस लाती थी। ठाकुर साहब की जो इतनी खातिर होने लगी, तो मिजाज आसमान पर चढ गया। नये नये स्वप्न देखने लगे। समझे, सौभाग्य सूर्य उदय हो गया। नौकरी पर अब ज्यादा रोब जमाने लगे। सोकर देर मे उठते और इलाके का दौरा भी बहुत कम करते। ऐसा जान पड़ता था, मानों इस इलाके के राजा वही हैं। दिनोदिन यह विश्वास होता जाता था कि रामप्रिया मेरे नयन-बाणो का शिकार हो गयी है, उसके हृदय-पट पर मेरी तसवीर खिंच गयी है। रोज कोई न कोई ऐसा प्रमाण मिल जाता था, जिससे यह भावना और भी दृढ हो जाती थी।

एक दिन आपने रामप्रिया की प्रेम-परीक्षा लेने की ठानी। कमरे में लिहाफ ओढ़कर पड़ रहे। रामप्रिया ने किसी काम के लिए बुलाया तो कहला भेजा, मुझे रात से जोरों का बुखार है, मारे दर्द के सिर फटा पड़ता है। रामप्रिया यह सुनते ही दीवानखाने में आ पहुँची और उनके सिर पर हाथ रखकर देखा, माथा ठण्ढा था। नाड़ी भी ठीक चल रही थी। समझी, कुछ सिर भारी हो गया होगा. कुछ परवाह न की। हाँ, अन्दर जाकर कोई तेल सिर में लगाने को भेजवा दिया।

ठाकुर साहब को इस परीक्षा से सन्तोष न हुआ। उसे प्रेम है, यह तो सिद्ध था, नहीं तो वह देखने दोड़ी पाती ही क्यों; लेकिन प्रेम कितना है, इसका कुछ अनुमान न हुआ। कहीं वह केवल शिष्टाचार के अंतर्गत न हो। वह केवल शिष्टाचार कर रही हो, और मैं प्रेम के भ्रम में पड़ा रहूँ। रामप्रिया के अधरों पर, नेत्रों में, बातो मे तो उन्हें प्रेम की झलक नजर आती थी; पर डरते थे कि मुझे भ्रम न हो। अबकी उन्होंने कड़ी परीक्षा लेने की ठानी। क्वार का महीना या। धूप तेज होती थी। मलेरिया फैला हुआ था। आप एक दिन दिन-भर पैदल खेतों में घूमते रहे, कई बार तालाब का पानी भी पिया। ज्वर का पूरा सामान करके आप घर लौटे। नतीजा उनके इच्छानुकूल ही हुआ। दूसरे दिन प्रातःकाल उन्हे ज्वर चढ़ आया और ऐसे जोर से आया कि दोपहर तक बक झक करने लगे। मारे दर्द के सिर फटने लगा। सारी देह टूट रही थी सिर में चक्कर आ रहा था। अब तो बेचारे को लेने के देने पड़े। प्रेम की