परीक्षा होने लगी और इसमें वह कच्चे निकले! कभी-रोते कि बाबूजी को बुला दो। कभी कहते स्त्री को बुला दो। इतना चीखे चिल्लाये कि नौकरों का नाकोदम हो गया। रामप्रिया ने पाकर देखा, तो होश उड़ गये। देह तवा हो रही थी ओर नाड़ी घोड़े की भाँति सरपट दौड़ रही थी। वेचारी घबरा उठो । तुरन्त डाक्टर को लाने के लिए श्रादमी को शहर दौड़ाया और श्राप ठाकुर साहब के सिरहाने बैठकर पखा झलने लगी। द्वार पर चिक डाल दी और एक आदमी को द्वार पर बिठा दिया कि किसी अपरिचित मनुष्य को अन्दर न जाने दे । ठाकुर साहब को सुधि होती और रामप्रिया की विकलता देखते, तो फूले न समाते; पर वहाँ तो जान के लाले पड़े हुए थे।
एक सप्ताह तक गुरुसेवक का ज्वर न उतरा। डाक्टर रोज पाते और देख-भालकर चले जाते। कोई दवा देने की हिम्मत न पड़ती। रामप्रिया को सोना और खाना हराम हो गया। दिन के दिन और रात-की-रात रोगी के पास बैठी रहती। पानी पिलाना होता, तो खुद पिलाती, सिर में तेल डालना होता, तो खुद डालती, पथ्य देना होता, तो खुद बनाकर देती। किसी नौकर पर उसे विश्वास न था।
अब लोगों को चिन्ता होने लगी। रोगी को यहाँ से उठाकर ले जाने में जोखिम था। सारा परिवार यहीं आ पहुँचा। हरिसेवक ने बेटे की सूरत देखी, तो रो पड़े। देह सूखकर काँटा हो गयी थी। पहचानना कठिन था। राजा साहब भी दिन में दो बार मनोरमा के साथ रोगी को देखने आते, पर इस तरह भागते, मानो किसी शत्रु के घर आये हों। रामप्रिया तो रोगी की सेवा सुश्रूषा में लगी रहतो, उसे इसकी परवा न थी कि कौन आता है और कौन जाता है, लेकिन रोहिणी को राजा साहब की यह निष्ठुरता असह्य मालूम होती थी। वह उनपर दिल का गुबार निकालने के लिए अवसर ढूँढती रहती थीं, पर राजा साहब भूलकर भी अन्दर न आते थे। आखिर एक दिन वह मनोरमा ही पर पिल पड़ी। बात कोई न थी। मनोरमा ने सरल भाव से कहा-यहाँ आप लोगों का जीवन बड़ी शान्ति से कटता होगा। शहर में तो रोज एक न एक झंझट सिर पर सवार रहता है। कभी इनकी दावत करो, कभी उनकी दावत में जाओ, आज क्लब में जलसा है, आज अमुक विद्वान का व्याख्यान है। नाकोंदम रहता है।
रोहिणी तो भरी बैठी ही थी। ऐंठकर बोली-हाँ बहन, क्यों न हो। ऐसे प्राणी भी होते हैं, जिन्हें पड़ोसी के उपवास देखकर जलन होती है। तुम्हें पकवान बुरे मालूम होते हैं, हम अभागिनी के लिए सत्त में भी बाधा। किसी को भोग, किसी को जोग, यह पुराना दस्तूर चला आता है, तुम क्या करोगी?
मनोरमा ने फिर उसी सरल भाव से कहा-अगर तुम्हें वहाँ सुख ही सुख मालूम होता है, तो चली क्यों नहीं आती? क्या तुम्हें किसी ने मना किया है? अकेले मेरा जी भी घबराया करता है। तुम रहोगी, तो मजे से दिन कट जायगा।
रोहिणी नाक सिकोड़कर बोली-भला, मुझमें वह हाव-भाव कहाँ है कि इधर राजा साहब को मुट्ठी में किये रहूँ, उधर हाकिमों को मिलाये रखूँ। यह तो कुछ लिखो-पढ़ी,