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पृष्ठ:कायाकल्प.djvu/२१६

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कायाकल्प]
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अहल्या—२५) का। मैं थोड़ा-थोड़ा बचाती गयी थी।

चक्रधर—मैं यह मानने का नहीं। बताओ, रुपये कहाँ मिले?

अहल्या—बता ही दूँ। अब की मैंने 'आर्य-जगत्' को दो लेख भेजे थे। उसी के पुरस्कार के ३०) मिले थे। आजकल एक और लेख लिख रही हूँ।

अहल्या ने समझा था, चक्रधर यह सुनते ही खुशी से उछल पड़ेंगे और प्रेम से मुझे गले लगा लेंगे, लेकिन यह आशा पूरी न हुई। चक्रधर ने उदासीन भाव से पूछा—कहाँ हैं लेख, जरा 'आर्य-जगत्' देखूँ?

अहल्या ने दोनों 'अंक' लाकर उनको दे दिये और लजाते हुए बोली—कुछ है नहीं, ऊट-पटाँग जो जी में आया, लिख डाला।

चक्रधर ने सरसरी निगाह से लेखों को देखा। ऐसी सुन्दर भाषा वह खुद न लिख सकते थे। विचार भी बहुत गम्भीर और गहरे थे। अगर अहल्या ने खुद न कहा होता, तो वह लेखों पर उसका नाम देखकर भी यही समझते कि इस नाम की कोई दूसरी महिला होगी। उन्हें कभी खयाल ही न हो सकता था कि अहल्या इतनी विचारशील है; मगर यह जानकर भी वह खुश नहीं हुए। उनके अहंकार को धक्का-सा लगा। उनके मन में गृह-स्वामी होने का जो गर्व अलक्षित रूप से बैठा हुआ था, वह चूर-चूर हो गया। वह अशांत भाव से बुद्धि में, विद्या मे एवं व्यावहारिक ज्ञान में अपने को अहल्या से ऊँचा समझते थे। रुपए कमाना उनका काम था। यह अधिकार उनके हाथ से छिन गया। विमन होकर बोले—तुम्हारे लेख बहुत अच्छे हैं, और पहली ही कोशिश में तुम्हें पुरस्कार भी मिल गया, यह और खुशी की बात है। लेकिन मुझे तो कम्बल की जरूरत न थी। कम से कम मैं इतना कीमती कम्बल न चाहता था; इसे तुम्हीं ओढ़ो। आखिर तुम्हारे पास तो वही एक पुरानी चादर है। मैं अपने लिए दूसरा कम्बल ले लूँगा।

अहल्या समझ गयी कि यह बात इन्हें बुरी लगी। बोली—मैंने पुरस्कार के इरादे से तो लेख न लिखे थे। अपनी एक सहेली का लेख पढ़कर मुझे भी दो-चार बातें सूझ गयीं। लिख डालीं। अगर तुम्हारी इच्छा नहीं है, तो अब न लिखूँगी।

चक्रधर—नहीं, नहीं, मैं तुम्हें लिखने को मना नहीं करता। तुम शौक से लिखो। मगर मेरे लिए तुम्हें यह कष्ट उठाने की जरूरत नहीं। मुझे ऐश करना होता, तो सेवाक्षेत्र में आता ही क्यों? मैं सब सोच समझकर इधर आया हूँ; मगर अब देख रहा हूँ कि 'माया और राम' दोनों साथ नहीं मिलते। मुझे राम को त्यागकर माया की उपासना करनी पड़ेगी।

अहल्या ने कातर भाव से कहा—मैंने तो तुमसे किसी बात की शिकायत नहीं की। अगर तुम जो हो, वह न होकर धनी होते, तो शायद मैं अब तक क्वाँरी ही रहती। धन की मुझे लालसा न तब थी, न अब है। तुम-जैसा रत्न पाकर अगर मैं धन के लिए रोऊँ, तो मुझसे बढ़कर अभागिनी कोई संसार में न होगी। तुम्हारी तपत्या में योग देना मैं अपना सौभाग्य समझती हूँ। मैंने केवल यह सोचा कि जब मैंने मेहनत की है, तो उसकी