भी अपने कर्तव्य को न समझा, तो मैं नहीं कह सकता, उस अवला की क्या दशा होगी।
चक्रधर रूप-लावण्य की अोर मे तो ऑखें बन्द कर सकते थे; लेकिन उदार के भाव को दवाना उनके लिए असम्भव था । वह स्वतन्त्रता के उपासक थे और निर्भी-कता स्वतन्त्रता की पहली सीढी है। उनके मन ने कहा- क्या यह काम ऐसा है कि समाज हॅसे ? समाज को इसकी प्रशसा करनी चाहिए। अगर ऐसे काम के लिए कोई मेरा तिरस्कार करे, तो मैं तृण बराबर भी उसकी परवाह न करूँगा। चाहे वह मेरे माता-पिता ही हों। दृढ़ भाव से बोले-मेरी ओर से आप जरा भो शंका न करें। मैं इतना भीरु नहीं हूँ कि ऐसे कामों में समाज-निन्दा से डरूँ। माता-पिता को प्रसन्न रखना मेरा धर्म है; लेकिन कर्तव्य और न्याय की हत्या करके नहीं । कर्तव्य के सामने माता पिता की इच्छा का मूल्य नहीं है ।
यशोदानन्दन ने चक्रधर को गले लगाते हुए कहा- भैया, तुमसे ऐसी ही आशा थी।
यह कहकर यशोदानन्दन ने अपना सितार उठा लिया और बजाने लगे । चक्र-घर को कभी सितार की ध्वनि इतनी प्रिय, इतनी मधुर न लगी थी। और न चॉदनी कभी इतनी सुहृदय और विहसित | दायें-बायें चाँदनी छिटकी हुई थी और उसकी-मन्द छटा मे अहल्या रेलगाडी के साथ, अगणित रूप धारण किये दोड़तो चली जाती थी। कभी वह उछलकर आकाश जा पहुँचती थी, कभी नदियों की चन्द्र-चञ्चल तरगो मे । यशोदानन्दन को न कभी इतना उल्लास हुअा था, न चक्र घर का कभी इतना गर्व, दोनों अानन्द-कल्पना मे हवे हुए थे।
गाडी नागरे पहुंची, तो दिन निकल आया था । सुनहरा नगर हरे हरे कुजों के बीच में विश्राम कर रहा था, मानों वालक माता की गोद में सोया हो।
इस नगर को देखते ही चक्रधर को कितनी हो ऐतिहासिक घटनाएँ याद आ गयों । सारा नगर किसी उजडे हुए घर की भॉति श्री-हीन हो रहा था ।
मुशी यशोदानन्दन अभी कुलियों को पुकार रहे थे कि उनकी निगाह पुलिस के सिपाहियो पर पड़ी। चारों तरफ पहरा था। मुसाफिरों के बिस्तरे, सन्दूक खोल-खोलकर देखे जाने लगे। एक थानेदार ने यशोदानन्दन का भी असबाब देखना शुरू किया।
यशोदानन्दन ने आश्चर्य से पूछा-क्यों माहव, ग्राज यह सख्ती क्यों है ?
थानेदार-आप लोगों ने जो कॉटे बोये हैं, उन्ही का फल है। शहर में फिसाद हो गया है।
यशोदा-अभी तीन दिन पहले तो अमन का राज्य था, यह भूत कहाँ से उठ खड़ा हुया?
इतने मे समिति का एक तेवक दौड़ता हुआ या पहुँचा । यशोदानन्दन ने ग्रागे