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[कायाकल्प
 

लपकर फिर एक धक्का दिया। सहसा सामनेवाले घर में से एक आदमी लालटेन लिये बाहर निकल आया और चक्रधर को देखकर बोला—अरे भगतजी। तुमने यह भेष कब से धारण किया? मुझे पहचानते हो? हम भी तुम्हारे साथ जेहल में थे।

चक्रधर उसे तुरंत पहचान गये। यह उनका जेल का साथी धन्नासिंह था। चक्रधर का सारा क्रोध हवा हो गया। लजाते हुए बोले—क्या तुम्हारा घर इसी गाँव में है, धन्ना?

धन्नासिंह—हाँ साहब, यह आदमी, जिसे आप ठोकरें मार रहे हैं, मेरा सगा भाई है। खाना खा रहा था। खाना छोड़ कर जब तक उठूँ, तब तक तो तुम गरमा ही गये। तुम्हारा मिजाज इतना कड़ा कब से हो गया? जेहल में तो तुम दया और धरम के देवता बने हुए थे। क्या दिखावा-ही-दिखावा था? निकला तो था कुछ और ही सोचकर, मगर तुम अपने पुराने साथी निकले। कहाँ तो दारोगा को बचाने के लिए अपनी छाती पर संगीन रोक ली थी, कहाँ आज जरा सी बात पर इतने तेज पड़ गये।

चक्रधर पर घड़ों पानी पड़ गया। मुँह से बात न निकली। वह अपनी सफाई में एक शब्द भी न बोल सके। उनके जीवन की सारी कमाई, जो उन्होंने न जाने कौन-कौन से कष्ट सहकर बटोरी थी, यहाँ लुट गयी। उनके मन की सारी सद्वृत्तियाँ आहत होकर तड़पने लगीं। एक ओर उनकी न्यायबुद्धि मन्दित होकर किसी अनाथ बालक की भाँति दामन में मुँह छिपाये रो रही थी, दूसरी ओर लज्जा किसी पिशाचिनी की भाँति उनपर आग्नेय बाणों का प्रहार कर रही थी।

धन्नासिंह ने अपने भाई का हाथ पकड़ कर बैठाना चाहा, तो वह जोर से 'हाय! हाय!' करके चिल्ला उठा। दूसरी बार गिरते समय उसका दाहिना हाथ उखड़ गया था। धन्नासिंह ने समझा, उसका हाथ टूट गया है। चक्रधर के प्रति उसकी रही-सही भक्ति भी गायब हो गयी। उनकी ओर आरक्त नेत्रों से देखकर बोला—सरकार आपने तो इसका हाथ ही तोड़ दिया। (ओठ चबाकर) क्या कहें, अपने द्वार पर आये हो और कुछ पुरानी बातों का ख्याल है, नहीं तो इस समय क्रोध तो ऐसा आ रहा है कि इसी तरह तुम्हारे हाथ भी तोड़ दूँ। यह तुम इतने कैसे बदल गये। अगर आँखों से न देखता होता, तो मुझे कभी विश्वास न आता। जरूर तुम्हें कोई ओहदा या जायदाद मिल गयी, मगर यह न समझो कि हम अनाथ हैं। अभी जाकर महाराज के द्वार पर फरियाद करें, तो तुम खड़े-खडे बँध जाओ। बाबू चक्रधरसिंह का नाम तो तुमने सुना ही होगा? अब किसी सरकारी आदमी की मजाल नहीं कि बेगार ले सके, तुम बेचारे किस गिनती में हो? ओहदा पाकर अपने दिन भूल न जाना चाहिए। तुम्हें मैंने अपना गुरु और देवता समझा था। तुम्हारे ही उपदेश से मेरी पुरानी आदतें छूट गयीं। गाँजा और चरस तभी से छोड़ दिया, जुए के नगीच नहीं जाता। जिस लाठी से सैकड़ों सिर फोड़ डाले होंगे, अब वह टूटी हुई पड़ी है। मुझे तो तुमने यह उपदेश दिया और आप लगे गरीबों को कुचलने। मन्नासिह ने इतना ही न कहा था कि रात को यहीं ठहर जाओ, सबेरे हम चलकर तुम्हारी मोटर पहुँचा देंगे। इसमें