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कायाकल्प]
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जाने कहाँ से वैज्ञानिक यन्त्र जमा कर लिये थे और दिन को जब घर पर रहते, तो उन्हीं यन्त्रों से कोई-न-कोई प्रयोग किया करते । उनके पास सभी कामो के लिए समय था । थगर समय न था, तो केवल देवप्रिया से बातचीत करने का! देवप्रिया की समझ में कुछ न पाता कि इनका हृदय इतना कठोर क्यों हो गया है। वह प्रेम-भाव कहाँ गया ? अब तो उससे सीधे मुँह बोलते तक नहीं । उससे कोन-सा अपराध हुआ। देवप्रिया पति को वन के पक्षियों के साय विहार करते, हिरणों के साथ खेलते सपों को नचाते, नदी में जल-क्रीड़ा करते देखती। प्रेम को इस अमोघ राशि से उसके लए मुठी भी नहीं ? उसने कौन-सा अपराध किया है ? उससे तो वह बोलते तक नहीं । ऐसी प्रनिन्य सुन्दरी उसने स्वय न देखी थी। उसने एक से एक रूपवती रमणियाँ देखी यो; पर अपने सामने कोई उसको निगाह में न अँचती थी। वह जंगली फूलो के गहने बना-बनाकर पहनतो, आँखों से हँसतो, हाव भाव, कटाक्ष सब कुछ करती; पर पति के हृदय में प्रवेश न कर सकती थी। तब वह मॅझला पड़ती कि अगर यों जलाना था, तो यौवन-दान क्यों दिया १ यह बला क्यों मेरे सिर पढ़ी। जिस योवन को पाकर उससे एक दिन अपने को संसार से सब से सुखी समझा था, उमी जोवन से अब उसका जी जलता था। वह रूपविहीन होकर स्वामी के चरणों में श्राश्रय पा सकती, तो इस अनुपम सौन्दर्य को वासी हार की भांति उतारकर फेंक देतो, पर कौन इसका विश्वास दिलायेगा?

एक दिन देवप्रिया ने महेन्द्र से कहा--तुमने मेरो काया तो बदल दो, पर मेरा मन क्यों न बदल दिया ?

महेन्द्र ने गम्भीर भाव से उत्तर दिया-जन तक पूर्व सस्कारों का प्रायश्चित न हो जाय, मन की भावनाएं नहीं बदल सकती।

इन शब्दों का ग्राशय जो कुछ हो; पर देवप्रिया ने यह समझा कि यह मुनाले क्वल मेरे पूर्व-सस्कारों के कारण घृणा करते हैं। उसका पीड़ित हृदय इस अन्याय से विकल हो उटा । आह ! यह इतने कठोर है ! इनमें क्षमा का नाम तक नहीं, तो क्या इन्होंने मुझे उन संस्कारों का दण्ड देने के लिए मेरो कायाकल्प की ? प्रलोभनो ने घिरी हुई अयला के प्रति इन्हें जरा भी सहानुभूति नहीं ! वह वाक्य शर के समान उसके हृदय मे चुभने लगा। पति में वह श्रद्धा न रहो। जीवन से विरक्त हो गयी। पति प्रेम का सुख भोगने के लिए ही उसने अपना त्याग किया या; पूर्व सस्कारां का दरट भोगने के लिए नरी । उससे समझा था, स्वामी मुझरर दया करके मेग उदार करने ले जा रहे हैं। उनके हाथों यह दण्ड सहना उत्ते स्वीकार न था। अपने पूर्वजोवन पर लजा थी, पश्चात्ताप या, पर पति के मुख से यह व्यन्य न सुनना चाहती थी। यह समार की सारी विति सद सक्ती यी, येवल पति-प्रेम ने वचित रहना उसे अनाय था । उसने सोचना शुरू किया, क्यों न चली जाऊँ ? पति से दूर हटका कटाचित् वह शान्त रहा सन्ती थी। दुरसती हुई खिों की अपेक्षा फूटी ना ही अच्छी; पर इस वियोग की