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[कायाकल्प
 

कल्पना ही से उसका मन भयभीत हो जाता था।

आखिर उसने यहाँ से प्रस्थान करने का निश्चय कर लिया। रात का समय था। महेन्द्र गुफा के बाहर एक शिला पर पड़े हुए थे। देवप्रिया आकर बोली—आप सो रहे हैं क्या?

महेन्द्र उठकर बैठ गये और बोले—नहीं, सो नहीं रहा हूँ। मैं एक ऐसे यन्त्र की कल्पना कर रहा हूँ, जिससे मनुष्य अपनी इन्द्रियों का दमन कर सके। संयम, साधन और विराग पर मुझे अब विश्वास नहीं रहा।

देवप्रिया—ईश्वर आपकी कल्पना सफल करें। मैं आपसे यह कहने आयी हूँ कि जब आप मुझे त्याज्य समझते हैं, तो क्यों हर्षपुर या कहीं और नहीं भेज देते?

महेन्द्र ने पीड़ित होकर कहा—मैं तुम्हें त्याज्य नहीं समझ रहा हूँ। प्रिये, तुम मेरी चिरसंगिनी हो और सदा रहोगी। अनन्त में दस-बीस या सौ-पचास वर्ष का वियोग 'नहीं' के बराबर है। तुम अपने को उतना नहीं जानती, जितना मैं जानता हूँ। मेरी दृष्टि में तुम पवित्र, निर्दोष और धवल के समान उज्ज्वल हो। इस विश्व प्रेम के साम्राज्य में त्याज्य कोई वस्तु नहीं है, न कि तुम, जिसने मेरे जीवन को सार्थक बनाया है। मैं तुम्हारी प्रेम-शक्ति का विकास मात्र हूँ।

देवप्रिया ये प्रेम से भरे हुए शब्द सुनकर गद्‌गद हो गयी। उसका सारा सन्ताप, सारा क्रोध, सारी वेदना इस भाँति शान्त हो गयी, जैसे पानी पड़ते ही धूप बैठ जाती है। वह उसी शिला पर बैठ गयी और महेन्द्र के गले में बाहें डालकर बोली—फिर आप मुझसे बोलते क्यों नहीं? मुझसे क्यों भागे-भागे फिरते हैं? मुझे इतने दिन यहाँ रहते हो गये, आपने कभी मेरी ओर प्रेम की दृष्टि से देखा भी नहीं। आप जानते हैं, पति प्रेम नारी नीवन का आधार है। इससे वंचित होकर अबला निराधार हो जाती है।

महेन्द्र ने करुण स्वर से कहा—प्रिये, बहुत अच्छा होता यदि तुम मुझसे यह प्रश्न न करती। मैं जो कुछ कहूँगा, उससे तुम्हारा चित्त और भी दुखी होगा। मेरे अन्दर की आग बाहर नहीं निकलती, इससे यह न समझो कि उसमें ज्वाला नहीं है। आह! उस अनन्त प्रेम की स्मृतियाँ अभी हरी हैं, जिनका आनन्द उठाने का सौभाग्य बहुत थोड़े दिनों के लिए प्राप्त हुआ था। उसी सुख की लालसा मुझे तुम्हारे द्वार का भिक्षुक बनाकर ले गयी थी। उसी लालसा ने मुझसे ऐसी कठिन तपस्याएँ करायीं, जहाँ प्रतिक्षण प्राणों का भय था। क्या जानता था कि कौशलमय विधि मेरी साधनाओं का उपहास कर रहा है। जिस वक्त मैं तुम्हारी ओर लालसा-पूर्ण नेत्रों से ताकता हूँ, तो मेरी आँखें जलने लगती हैं, जब तुम्हें प्रातःकाल अञ्चल में फूल भरे ऊषा की भाँति स्वर्णछटा की वर्षा करते आते देखता हूँ, तो मेरे मन में अनुराग का जो भीषण विप्लव होने लगता है, उसकी तुम कल्पना भी नहीं कर सकती, लेकिन तुम्हारे समीप जाते ही मेरे समस्त शरीर में ऐसी जलन होने लगती है, मानो अग्निकुण्ड में घुसा जा रहा हूँ। तुम्हें याद है, एक दिन मैंने तुम्हारा हाथ पकड़ लिया था। मुझे ऐसा जान पड़ा कि