पृष्ठ:कायाकल्प.djvu/२३८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
कायाकल्प]
२५३
 

जलते तवे पर हाथ पड़ गया। इसका क्या कारण है! विधि क्या हमारे प्रेम मिलन में बाधक हो रहा है, यह मैं नही जानता; पर ऐसा अनुमान करता हूँ कि यह मेरी लालसा का दण्ड है।

नारी बुद्धि तीक्ष्ण होती है। महेन्द्र की समझ में जो बात न आयी थी, वह देवप्रिया समझ गयी। उस दिन से वह तपस्विनी वन गयी। पति के साये से भी भागती। अगर वह उसके कमरे में आ जाते, तो उनकी ओर आँखें उठाकर भी न देखती; पर वह इस दशा में भी प्रसन्न भी। रमणी का हृदय सेवा के सूक्ष्म परमाणुओं से बना होता है। उसका प्रेम भी सेवा है, उसका अधिकार भी सेवा है, यहाँ तक कि उसका क्रोध भी सेवा है। विडम्बना तो यह थी कि यहाँ सेवा क्षेत्र में भी वह स्वाधीन न थी। उसके लिए सेवा की सीमा वहीं तक थी, जहाँ से अनुराग का आरम्भ होता है। उसकी सेवा में पत्नी-भाव का अल्पाँश भी न आने पाये, यही चेष्टा वह करती रहती थी। अगर विधि को उसके सौभाग्य से आपत्ति है, अगर वह इस अपराध के लिए उसके पति को दण्ड देना चाहता है, तो देवप्रिया यह साक्षी देने को तैयार थी कि उसने पति-प्रेम का उतना ही आनन्द उठाया है, जितना एक विधवा भी उठा सकती है।

एक दिन महेन्द्र ने आकर कहा—प्रिये, चलो; आज तुम्हें आकाश की सैर करा लाऊँ। मेरा हवाई जहान तैयार हो गया है।

महेन्द्र ने सात वर्ष के अनवरत परिश्रम से यह वायुयान बनाया था। इसमें विशेषता यह थी कि तूफान और मेह मे भी स्थिर रूप से चला जाता था, मानो नैसर्गिक शक्तियों पर विजय का डंका बजा रहा हो। उसमें जरा भी शोर न होता था। गति घंटे में एक हजार मील की थी। इस पर बैठकर वह पृथ्वी की प्रत्येक वस्तु को उसके यथार्थ रूप में देख सकते थे, दूर-से-दूर देशों के विद्वानों के भाषण और गानेवालों के गीत सुन सकते थे। उस पर बैठते हो मानसिक शक्तियाँ दिव्य और नेत्रों की ज्योति सहस्र गुणी हो जाती थी। यह एक अद्भुत यन्त्र था। महेन्द्र ने अब तक कभी देवप्रिया से उस पर बैठने का अनुरोध न किया था। उनके मुँह से उसके गुण सुनकर उसका जी तो चाहता था कि उसमें एक बार बैठे, इसकी बड़ी तीव्र उत्कण्ठा होती थी, पर वह संवरण कर जाती थी। आज यह प्रस्ताव करने पर भी उसने अपनी उत्सुकता को दबाते हुए कहा आप जाइए, आकाश की सैर कीजिए, मैं अपनी कुटिया में ही मगन हूँ।

मरेन्द्र—मानव-बुद्धि ने अब तक जितने आविष्कार किये हैं, उनका पूर्ण विकास देख लोगी।

देवप्रिया—आप जाइए, मैं नहीं जाती।

मरेन्द्र—मैं तो आज तुम्हें जबरदस्ती ले चलूँगा।

वह कहकर उन्होंने देवप्रिया का हाथ पकड़ लिया और अपनी ओर खींचा। देवप्रिया का चित्त डावाँडोल हो गया। जैसे अपने नटखट बालक के बुलाने पर कुत्ता डरता-डरता जाता है कि मालूम नहीं भोजन मिलेगा या डंडें, उसी भाँति देवप्रिया