चक्रधर तो इस विचार मे पड़े हुए थे, और अहल्या अपने सजे हुए शयनागार में मखमली गद्दों पर लेटी अँगड़ाइयाँ ले रही थी। चारपाई के सामने ही दीवार में एक बड़ा-सा आईना लगा हुआ था। वह उस आईने मे अपना स्वरूप देख-देखकर मुग्ध हो रही थी। सहसा शंखधर एक रेशमी कुरता पहने लुढ़कता हुआ आकर उसके पास खड़ा हो गया। अहल्या ने हाथ फैलाकर कहा—बेटा, जरा मेरी गोद में आ जाओ।
शंखधर अपना खोया हुआ घोड़ा ढूँढ़ रहा था। बोला—अम नई
अहल्या—देखो, में तुम्हारी अम्माँ हूँ ना?
शंखधर—तुम अम्माँ नई। अम्माँ लानी है।
अहल्या—क्या मैं रानी नहीं हूँ?
शखधर ने उसे कुतूहल से देखकर कहा—तुम लानी नई। अम्माँ लानी है।
अहल्या ने चाहा कि वालक को पकड़ लें, पर वह तुम लानी नई, तुम लानी नईं!' कहता हुआ कमरे से निकल गया। बात कुछ न थी, लेकिन अहल्या ने कुछ और ही आशय समझा। यह भी उसकी समझ में मनोरमा की कूटनीति थी। वह उससे राज-माता का अधिकार भी छीनना चाहती है। वह बालक को पकड़ लाने के लिए उठी ही थी कि चक्रधर ने कमरे में कदम रखा। उन्हें देखते ही अहल्या ठिठक गयी और त्योरियाँ चढ़ाकर बोली—अब तो रात रात भर आपके दर्शन ही नहीं होते।
चक्रधर—कुछ तुम्हें खबर भी है। आध घण्टे तक जगाता रहा, जब तुम न जागी, तो चला गया। यहाँ आफर तुम सोने में कुशल हो गयीं।
अहल्या—बातें बनाते हो। तुम रात को यहाँ थे ही नहीं। १२ बजे तक जागती रही। मालूम होता है, तुम्हें भी सैर सपाटे की सूझने लगी। अब मुझे यह एक और चिन्ता हुई।
चक्रधर—अब तक जितनी चिन्ताएँ है, उनमें तो तुम्हारी नींद का यह हाल है, यह चिन्ता और हुई, तो शायद तुम्हारी कभी आँख ही न खुले।
अहल्या—क्या मैं सचमुच बहुत सोती हूँ?
चक्रधर—अच्छा, अभी तुम्हें इसमें सन्देह भी है! घड़ी में देखो! आठ बज गये हैं। तुम पाँच बजे उठकर घर का धन्धा करने लगती थीं।
अहल्या—तब की बातें जाने दो। अब उतने सवेरे उठने की जरूरत ही क्या है।
चक्रधर—तो क्या तुम उम्र-भर यहाँ मेहमानी खाओगी?
अहल्या ने विस्मित होकर कहा—इसका क्या मतलब?
चक्रधर—इसका मतलब यही है कि हमें यहाँ आये हुए बहुत दिन गुजर गये। अब अपने घर चलना चाहिए।
अहल्या—अपना घर कहाँ है?
चक्रधर—अपना घर वहीं है, जहाँ अपने हाथों की कमाई है।
अहल्या ने एक मिनट सोचकर कहा—लल्लू कहाँ रहेगा?