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पृष्ठ:कायाकल्प.djvu/२४३

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[कायाकल्प
 


चक्रधर बड़ी देर तक इन्हीं विचारों में मग्न बैठे रहे। अहल्या पति के साथ जाने पर सहमत तो हो गयी थी, पर दिल में डर रही थी कि कहीं सचमुच न जाना पड़े। वह राजा साहब को पहले ही से सचेत कर देना चाहती थी, जिसमें वह चक्रधर की नीति और धर्म की बातों में न आ नायँ। उसे इसका पूरा विश्वास था कि चक्रधर राजा साहब से बिना पूछे कदापि न जायँगे। वह क्या जानती थी कि जिन बातों से उसके दिल पर जरा भी असर नहीं होता, वही बातें चक्रधर के दिल पर तीर की भाँति लगती हैं। चक्रधर ने अकेले, बिना किसी से कुछ कहे-सुने चले जाने का संकल्प किया। इसके सिवा उन्हें गला छुड़ाने का कोई उपाय ही न सूझता था।

इस वक्त वह उस मनहूस घड़ी को कोस रहे थे, जब मनोरमा की बीमारी की खबर पाकर अहल्या के साथ वह यहाँ आये थे। वह अहल्या को यहाँ लाये ही क्यों थे? अहल्या ने आने के लिए आग्रह न किया था। उन्होंने खुद गलती की थी। उसी का यह भीषण परिणाम था कि आज उनको अपनी स्त्री और पुत्र दोनों से हाथ धोना पड़ता था। उन्होंने लाठी के सहारे से दीपक का काम लिया था; लेकिन हा दुर्भाग्य! आज वह लाठी भी उनके हाथ से छीनी जाती थी। पत्नी और पुत्र के वियोग की कल्पना ही से उनका जी घबराने लगा। कोई समय था, जब दाम्पत्य जीवन से उन्हें उलझन होती थी। मृदुल हास्य और तोतले शब्दों का आनन्द उठाने के बाद अब एकान्तवास असह्य प्रतीत होता था। कदाचित् अकेले घर में वह कदम ही न रख सकेंगे, कदाचित् उस निर्जन वन को देखकर वह रो पड़ेंगे।

मनोरमा इस वक्त शंखधर को लिये हुए बगीचे की ओर जाती हुई इधर से निकली। चक्रधर को देखकर वह एक क्षण के लिए ठिठक गयी। शायद वह देखना चाहती थी कि अहल्या है या नहीं। अहल्या होती, तो वह यहाँ दम-भर भी न ठहरती, अपनी राह चली जाती। अहल्या को न पाकर वह कमरे के द्वार पर आ खड़ी हुई और बोली—बाबूजी, रात को सोये नहीं क्या? आँखें चढ़ी हुई हैं।

चक्रधर—नींद ही नहीं आयी। इसी उधेड़-बुन में पड़ा था कि रहूँ या जाऊँ? अन्त में यही निश्चय किया कि यहाँ और रहना अपना जीवन नष्ट करना है।

मनोरमा—क्यों लल्लू! यह कौन हैं?

शंखधर ने शर्माते हुए कहा—बाबूजी!

मनोरमा-इनके साथ जायगा?

बालक ने आँचल से मुँह छिपाकर कहा—लानी अम्माँ छाथ?

चक्रधर हँसकर बोले—मतलब की बात समझता है। रानी अम्माँ को छोड़कर किसी के साथ न जायगा।

शंखधर ने अपनी बात का अनुमोदन किया—अम्माँ लानी।

चक्रधर—जभी तो चिमटे हो। बैठे-बिठाये मुफ्त का राज्य पा गये। घाटे में तो हमीं रहे कि अपनी सारी पूँजी खो बैठे।