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कायाकल्प]
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मनोरमा ने कहा—कब तक लौटिएगा?

चक्रधर—कह नहीं सकता, लेकिन बहुत जल्द लौटने का विचार नहीं है। इस प्रलोभन से बचने के लिए मुझे बहुत दूर जाना पड़ेगा।

रानी ने मुस्कराकर कहा—मुझे भी लेते चलिए। यह कहते-कहते रानी की आँखें सजल हो गयीं।

चक्रधर ने गम्भीर भाव से कहा—यह तो होना ही नहीं था, मनोरमा रानी! जब तुम बालिका थीं, तब भी मेरे लिए देवी की प्रतिमा थीं, और अब भी देवी की प्रतिमा हो।

मनोरमा—बातें न बनाओ, बाबूजी; तुम मुझे हमेशा धोखा देते आये हो और अब भी वही नीति निभा रहे हो। सच कहती हूँ, मुझे भी लेते चलिए। अच्छा; मैं राजा साहब को राजी कर लूँ, तब तो आपको कोई आपत्ति न होगी?

चक्रधर—मनोरमा, दिल्लगी कर रही हो, या दिल से कहती हो?

मनोरमा—दिल से कहती हूँ, दिल्लगी नहीं।

चक्रधर—मैं आपको अपने साथ न ले जाऊँगा।

मनोरमा—क्यों?

चक्रधर—बहुत सी बातों का अर्थ बिना कहे ही स्पष्ट होता है।

मनोरमा—तो आपने मुझे अब भी नहीं समझा। मुझे भी बहुत दिनों से कुछ सेवा करने की इच्छा है। मैं भोग विलास करने के लिए यहाँ नहीं आयी थी। ईश्वर को साक्षी देकर कहती हूँ, मैं कभी भोग-विलास में लिप्त न हुई थी। धन से मुझे प्रेम है; लेकिन केवल इसलिए कि उससे मैं कुछ सेवा कर सकती, और सेवा करनेवालों की कुछ मदद कर सकती। सच कहा है, पुरुष कितना ही विद्वान् और अनुभवी हो, पर स्त्री को समझने में असमर्थ ही रहता है। खैर, न ले जाइए। अदल्यादेवी ने तप किया है।

चक्रधर—वह तो साथ जाने को कहती हैं।

मनोरमा—कौन! अहल्या! वह आपके साथ नहीं जा सकतीं, और आप ले भी गये, तो आज के तीसरे दिन यहाँ पहुँचाना पड़ेगा। मैं वही हूँ जो तब थी, किन्तु वह अपने दिन भूल गयीं।

यह कहते हुए मनोरमा ने बालक को गोद में उठा लिया और मन्द गति से बगीचे की ओर चली गयी। चक्रधर खड़े सोच रहे थे, क्या वास्तव में मैंने इसे नहीं समझा। अवश्य ही मेरा इसे विलासिनी समझना भ्रम है। हम क्यों ऐसा समझते हैं कि स्त्रियों का जन्म केवल भोग-विलास के लिए ही होता है? क्या उनका हृदय ऊँचे और पवित्र भावों से शून्य होता है? हमने उन्हें कामिनी, रमणी, सुन्दरी आदि विलास सूचक नाम दे-देकर वास्तव में उन्हें वीरता, त्याग और उत्सर्ग से शून्य पर दिया है। अगर सभी पुरुष वासना प्रिय नहीं होते, तो सभी स्त्रियाँ क्यों वासना-प्रिय होने लगीं! अगर मनोरमा जो कुछ कहती है, वह सत्य है, तो मैंने उसे हकीकत में नही समझा! हा मन्दबुद्धि!