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[कायाकल्प
 


सहसा चक्रधर को एक बात याद आ गयी! तुरन्त मनोरमा के पास जाकर बोले—मैं आपसे एक विनय करने आया हूँ। धन्नासिंह के साथ मैंने जो अत्याचार किया है, उसका कुछ प्रायश्चित्त करना आवश्यक है।

मनोरमा ने मुस्कराकर कहा—बहुत देर में इसकी सुधि आयी। मैने उसकी कुल जोत मुआफी कर दी है।

चक्रधर ने चकित होकर कहा—आप सचमुच देवी हैं! तो मैं जाकर उन सबों को इसकी इत्तला दे दूँ?

मनोरमा—आपका जाना आपकी शान के खिलाफ है। इस जरा-सी बात की सूचना देने के लिए भला आप क्या जाइएगा? तो आपने कब जाने का विचार किया है?

चक्रघर—आज ही रात को।

मनोरमा ने मुस्कराते हुए कहा—हाँ, उस वक्त अहल्यादेवी सोती भी होगी।

एक क्षण के बाद फिर बोली—मैं अहल्या होती, तो सब कुछ छोड़कर आपके साथ चलती।

यह कहते-कहते मनोरमा ने लज्जा से सिर झुका लिया। जो बात वह ध्यान में भी न लाना चाहती थी, वह उसके मुँह से निकल गयी। उसने उसी वक्त शंखधर को उठा लिया और बाग के दूसरी तरफ चली गयी, मानो उनसे पीछा छुड़ाना चाहती है, या शायद डरती है कि कहीं मेरे मुँह से कोई और अंसगत बात न निकल जाय।

चक्रधर कुछ देर तक वहीं खड़े रहे, फिर बाहर चले गये। किसी काम में जी न लगा। सोचने लगे, जरा शहर चलकर अम्माँजी से मिलता आऊँ, मगर डरे कि कहीं अम्माँ शिकायतों का दफ्तर न खोल दें। निर्मला एक बार यहाँ आयी थी; मगर एक ही सप्ताह में ऊबकर चली गयी थी। अहल्या की रुखाई से उसका दिल खट्टा हो गया था। जो अहल्या शील और विनय की पुतली थी, वह यहाँ सीधे मुँह बात भी न करती थी।

ज्यों ज्यों सन्ध्या निकट आती थी, उनका जी उचाट होता जाता था। पहले कहीं बाहर जाने में जो उत्साह होता था, उसका अब नाम भी न था। जानते थे कि छलके हुए दूध पर आँसू बहाना व्यर्थ है, किन्तु इस वक्त बार-बार स्वर्गवासी मुन्शी यशोदानन्दन पर क्रोध आ रहा था। अगर उन्होंने मेरे गले में फन्दा न डाला होता, तो आज मुझे क्यों यह विपत्ति झेलनी पड़ती? मैं तो राजा की लड़की से विवाह न करना चाहता था। मुझे तो धनी कुल की कन्या से भी डर लगता था। विधाता को मेरे ही साथ यह क्रीड़ा करनी थी!

सन्ध्या-समय वह राजा साहब से पूछने गये। राजा साहब ने आँखों में आँसू भर कर कहा—बाबूजी, आप धुन के पक्के आदमी हैं, मेरी बात आप क्यों मानने लगे, मगर मैं इतना कहता हूँ कि अहल्या रो-रोकर प्राण दे देगी और आपको बहुत जल्द लौटकर आना पड़ेगा। अगर आप उसे ले गये, तो शंखधर भी जायगा और मेरी सोने