सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:कायाकल्प.djvu/२६०

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
कायाकल्प]
२७५
 

स्वभाव है। गुरुसेवक ने आज तक उसका स्वभाव न जाना। नोरा, जिस दिन से वह गयी है, मैं कुछ और ही हो गया हूँ। जान पड़ता है, मेरी आत्मा कहीं चली गयी है। मुझे अपने ऊपर जरा भी भरोसा नहीं रहा। मुझमें निश्चय करने की शक्ति ही नहीं रही। अपने कर्त्तव्य का ज्ञान ही नहीं रहा। तुम्हें अपने बचपन की याद आती है, नोरा?

मनोरमा—बहुत पहले की बातें तो नहीं याद हैं; लेकिन लौंगी अम्मा का, मुझे गोद में खिलाना खूब याद है, अपनी बीमारी भी याद आती है, जब लौंगी अम्मा मुझे पंखा झला करती थीं।

हरिसेवक ने अवरुद्ध कण्ठ से कहा—उससे पहले को बात है नोरा, जब गुरुसेवक तीन वर्ष का था और तुम्हें तुम्हारी माता साल-भर का छोड़कर चल बसी थी। मैं पागल हो गया था। यही जी में आता था कि आत्महत्या कर लूँ। नोरा, जैसी तुम हो, वैसी ही तुम्हारी माता भी थी। उसका स्वभाव भी तुम्हारे-जैसा था। मैं बिलकुल पागल हो गया था। उस दशा में इसी लौंगी ने मेरी रक्षा की। उसकी सेवा ने मुझे मुग्ध कर दिया। उसे तुम लोगों पर प्राण देते देखकर उस पर मेरा प्रेम हो गया। मैं उसके स्वरूप और यौवन पर न रीझा। तुम्हारी माता के बाद किसका स्वरूप और यौवन मुझे मोहित कर सकता था? मैं लौंगी के हृदय पर मुग्ध हो गया। तुम्हारी माता भी तुम लोगों का लालन-पालन इतना तन्मय होकर न कर सकती थी। गुरुसेवक की बीमारी की याद तुम्हें क्या आयेगी? न-जाने इसे कौन सा रोग हो गया था। खून के दस्त आते थे और तिल-तिल पर। छः महीने तक उसको दशा यही रही। जितनी दवा-दारू उस समय कर सकता था, वह सब करके हार गया। झाड़-फूँक, दुआ-ताबीज सब कुछ कर चुका। इसके बचने की कोई आशा न थी। गलकर काँटा हो गया था। रोता तो इस तरह, मानो कराह रहा है। यह लौंगी ही थी जिसने उसे मौत के मुँह से निकाल लिया। कोई माता अपने बालक की इतनी सेवा नहीं कर सकती। जो उसके त्यागमय स्नेह को देखता, दाँतों-तले उँगली दबाता था। क्या वह लोभ के वश अपने को मिटाये देती थी? लोभ में भी कहीं त्याग होता है? और आज गुरुसेवक उसे घर से निकाल रहा है, समझता है कि लौंगी मेरे धन के लोभ से मुझे घेरे हुए हैं। मूर्ख यह नहीं सोचता कि जिस समय लौंगी उसका पंजर गोद में लेकर रोया करती थी, उस समय धन कहाँ था। सच पूछो, तो यहाँ लक्ष्मी लौंगी के समय ही आयी; बल्कि लक्ष्मी ही लौंगी के रूप में आयी; लौंगी ही ने मेरे भाग्य को रचा। जो कुछ किया, उसी ने किया, मैं तो निमित्त मात्र था। क्यों नोरा, मेरे सिरहाने कौन खड़ा है? कोई बाहरी आदमी है? कह दो, यहाँ से जाय।

मनोरमा—यहाँ तो मेरे सिवा कोई नही है। आपको कोई कष्ट हो रहा है? फिर डाक्टर को बुलाऊँ?

हरिसेवक—मेरा जी घबरा रहा है, रह-रहकर डूबा जाता है। कष्ट कोई नहीं, कोई पीड़ा नहीं। बस, ऐसा मालूम होता है कि दीपक में तेल नहीं रहा। गुरुसेवक शाम तक पहुँच जायगा?