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कायाकल्प]
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मनोरमा आँसुओं के वेग को रोके हुए थी। उसे उस चिर-परिचित स्थान में आज एक विचित्र शंका का आभास हो रहा था। ऐसा जान पड़ता था कि सूर्य प्रकाश कुछ क्षीण हो गया है, मानो सन्ध्या हो गयी है। दीवान साहब के मुख की ओर ताकने की हिम्मत न पड़ती थी।

दीवान साहब छत की ओर टकटकी लगाये हुए थे, मानो उनकी दृष्टि अनन्त के उस पार पहुँच जाना चाहती हो। सहसा उन्होने क्षीण-स्वर से पुकारा—नोरा!

मनोरमा ने उनकी ओर करुण नेत्रों से देखकर कहा—खड़ी हूँ, दादाजी!

दीवान—जरा कलम-दावात लेकर मेरे समीप आ जाओ। कोई और तो यहाँ नहीं है? मेरा दान-पत्र लिख लो। गुरुसेवक की लौंगी से न पटेगी। मेरे पीछे उसे बहुत कष्ट होगा। मैं अपनी सब जायदाद लौंगी को देता हूँ। जायदाद के लोभ से गुरुसेवक उससे दबेगा। तुम यह लिख लो और तुम्हीं इसकी साक्षी देना। जरा बहू को बुला लो, मैं उसे भी समझा दूँ। यह वसीयत तुम अपने ही पास रखना। जरूरत पड़ने पर इससे काम लेना।

मनोरमा अन्दर जाकर रोने लगी। अब आँसुओं का वेग उसके रोके न रुका। उसकी भाभी ने पूछा—क्या है दीदी, दादाजी का जी कैसा है?

यह कहते हुए वह घबराई हुई दीवान साहब के सामने आकर खड़ी हो गयी। उसकी आँखों में आँसू भर आये। कमरे में वह निस्तब्धता छायी हुई थी, जिसका आशय सहज ही समझ में आ जाता है। उसने दीवान साहब के पैरों पर सिर रख दिया और रोने लगी।

दीवान साहब ने उसके सिर पर हाथ रखकर आशीवाद देते हुए कहा—बेटी! यह मेरा अन्तिम समय है। यात्रा के सामान कर रहा हूँ। गुरसेवक के आने तक क्या होगा, नही जानता। मेरे पीछे लौंगी बहुत दिन न रहेगी। उसका दिल न दुखाना। मेरी तुमसे यही याचना है। तुम बड़े घर की बेटी हो। जो कुछ करना, उसकी सलाह से करना। इसी में वह प्रसन्न रहेगी। ईश्वर तुम्हारा सौभाग्य अमर करें!

यह कहते-करते दीवान साहब की आँखें बन्द हो गयीं। कोई आध घण्टे के बाद उन्होंने आँखें खोली और उत्सुक नेत्रों से इधर-उघर देखकर बोले—अभी नहीं आयी? अब भेंट न होगी?

मनोरमा ने रोते हुए कहा—दादाजी, मुझे भी कुछ कहते जाइए। मैं क्या करूँ?

दीवान साहब ने आँखें बन्द किये हुए कहा—लौंगी को देखो?

थोड़ी देर में राजा साहब आ पहुँचे। अहल्या भी उनके साथ थी। मुन्शी वज्रधर को भी उड़ती हुई खबर मिली। दौड़े आये। रियासत के सैकड़ों कर्मचारी जमा हो गये। डाक्टर भी आ पहुँचा। किन्तु दीवान साहब ने आँखें न खोलीं।

सन्ध्या हो गयी थी। कमरे में सन्नाटा छाया हुआ था! सब लोग सिर झुकाये बैठे थे, मानो श्मशान में भूतगण बैठे हों। सबको आश्चर्य हो रहा था कि इतनी जल्द यह