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[कायाकल्प
 

क्या हो गया। अभी कल शाम तक तो मजे में रियासत का काम करते रहे। दीवान साहब अचेत पड़े हुए थे, किन्तु आँखों से आँसू की धारें बह बहकर गालों पर आ रही थीं। उस वेदना का कौन अनुमान कर सकता है।

एकाएक द्वार पर एक बग्घी आकर रुकी और उसमें से एक स्त्री उतरकर घर में दाखिल हुई। शोर मच गया—आ गयी, आ गयी! यह लौंगी थी।

लौंगी आज ही हरिद्वार से चली थी। गुरुसेवक से उनकी भेंट न हुई थी। इतने आदमियों को जमा देखकर उसका हृदय दहल उठा। उसके कमरे में आते ही और लोग हट गये। केवल मनोरमा, उसकी भाभी और अहल्या रह गयीं।

लौंगी ने दीवान साहब के सिर पर हाथ रखकर भर्रायी हुई आवाज में कहा—प्राणनाथ! क्या मुझे छोड़कर चले जाओगे?

दीवान साहब को आँखें खुल गयीं। उन आँखों में कितनी अपार वेदना थी, किन्तु कितना अपार प्रेम!

उन्होंने दोनों हाथ फैलाकर कहा—लौंगी, और पहले क्यों न आयी?

लौंगी ने दोनों फैले हुए हाथों के बीच में अपना सिर दिया और उस अन्तिम आलिंगन के आनन्द में विह्वल हो गयी। इस निर्जीव, मरणोन्मुख प्राणी के आलिंगन में उसने उस आत्मबल, विश्वास और तृप्ति का अनुभव किया, जो उसके लिए अभूतपूर्व था। इस आनन्द में वह शोक भूल गयी। पचीस वर्ष के दाम्पत्य जीवन में उसने कभी इतना आनन्द न पाया था। निर्दय अविश्वास रह रहकर उसे तड़पाता रहता था। उसे सदैव यह शंका बनी रहती थी कि यह डोंगी पार लगती है, या मँझधार ही में डूब जाती है। वायु का हलका-सा वेग, लहरों का हलका-सा आन्दोलन, नौका का हलका-सा कम्पन उसे भयभीत कर देता था। आज उन सारी शंकाओं और वेदनाओं का अन्त हो गया। आज उसे मालूम हुआ कि जिसके चरणों पर मैंने अपने को समर्पित किया था, वह अन्त तक मेरा रहा। यह शोकमय कल्पना भी कितनी मधुर और शान्तिदायिनी थी।

वह इसी विस्मृति की दशा में थी कि मनोरमा का रोना सुनकर चौंक पड़ी और दिवान साहब के मुख की ओर देखा। तब उसने स्वामी के चरणों पर सिर रख दिया और फूट-फूटकर रोने लगी। एक क्षण में सारे घर में कुहराम मच गया। नौकर-चाकर सभी रोने लगे। जिन नौकरों को दीवान साहब के मुख से नित्य घुड़कियाँ मिलती थीं, वह भी रो रहे थे। मृत्यु में मानसिक प्रवृत्तियों को शान्त करने की विलक्षण शक्ति होती है। ऐसे विरले ही प्राणी संसार में होंगे, जिनके अन्तःकरण मृत्यु के प्रकाश से आलोकित न हो जायँ। अगर कोई ऐसा मनुष्य है, तो उसे पशु समझो। हरिसेवक की कृपणता, कठोरता, संकीर्णता, धूर्तता एवं सारे दुर्गुण, जिनके कारण वह अपने जीवन में बदनाम रहे, इस विशाल प्रेम के प्रवाह में बह गये।

आधी रात बीत चुकी थी। लाश अभी तक गुरुसेवक के इन्तजार में पड़ी हुई थी।