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[कायाकल्प
 

लौंगी ने गम्भीर स्वर में कहा-नोरा, तुम यह वसीयतनामा ले जाकर उन्हीं को दे दो। तुम्हारे दादाजी ने व्यर्थ हो वसीयत लिखायी। मै उनकी जायदाद की भूखी न थी, उनके प्रेम की भूखी थी। और ईश्वर को साक्षी देकर कहती हूँ बेटी, कि इस विषय में मेरा जैसा भाग्य बहुत कम स्त्रियों का होगा। मैं उनका प्रेम-धन पाकर ही सन्तुष्ट हूँ। इसके सिवा अब मुझे और किसो धन की इच्छा नहीं है। अगर मैं अपने सत पर हूँ, तो मुझे रोटी कपड़े का कष्ट कभी न होगा। गुरुसेवक को मैंने गोद में खिलाया है, उसे पाला-पोसा है। वह मेरे स्वामी का बेटा है। उसका हक मैं किस तरह छीन सकती हूँ? उसके सामने की थाली कैसे खीच सकती हूँ? वह कागज फाड़कर फेंक दो। यह कागज लिखकर उन्होंने अपने साथ और गुरुसेवक के साथ अन्याय किया है। गुरुसेवक अपने बाप का बेटा है, तो मुझे उसी आदर से रखेगा। वह मुझे माने या न माने, मैं उसे अपना ही समझती हूँ। तुम सिरहाने बैठी मेरा सिर दवा रही हो, क्या धन में इतना सुख कभी मिल सकता है? गुरुसेवक के मुंह से 'अम्मा' सुनकर मुझे वह खुशी होगी, जो संसार की रानी बनकर भी नहीं हो सकती, तुम उनसे इतना ही कह देना।

यह कहते-कहते लौंगी की आँखें सजल हो गयीं। मनोरमा उसको ओर प्रेम, श्रद्धा, गर्व और आश्चर्य से ताक रही थी, मानो वह कोई देवी हो।


३९

रानी वसुमती बहुत दिनों से स्नान, व्रत, ध्यान तथा कीर्तन में मग्न रहती थीं, रियासत से उन्हें कोई सरोकार ही न था। भक्ति ने उनकी वासनाओं को शान्त कर दिया था। बहुत सूक्ष्म आहार करती और वह भी केवल एक बार। वस्त्राभूषण से भी उन्हें विशेष रुचि न थी। देखने से मालूम होता था कि कोई तपस्विनी हैं। रानी रामप्रिया उसी एक रस पर चली जाती थीं। इधर उन्हें संगीत से विशेष अनुराग हो गया था। सबसे अलग अपनी कविता कुटीर में बैठी संगीत का अभ्यास करती रहती थीं। पुराने सिक्के, देश-देशान्तरों के टिकट और इसी तरह की अनोखी चीजों का सग्रह करने की उन्हें धुन थी। उनका कमरा एक छोटा-मोटा अजायबखाना था। उन्होंने शुरू ही से अपने को दुनिया के झमेलों से अलग रखा था। इधर कुछ दिनों से रानी रोहिणी का चित्त भी भक्ति की ओर झुका हुआ नजर आता था। वही, जो पहले ईर्ष्या की अग्नि में जला करती थी, अब वह साक्षात् क्षमा और दया की देवी वन गयी थी। अहल्या से उसे बहुत प्रेम था, कभी-कभी प्राकर घण्टों बैठी रहती। शखघर भी उससे बहुत हिल गया था। राजा साहब तो उसी के दास थे, जो शखघर को प्यार करे। रोहिणी ने शखघर को गोद में खेला-खेलाकर उनका मनोमालिन्य मिटा दिया। एक दिन रोहिणी ने शखघर को एक सोने की घड़ी इनाम दी। शख धर को पहली बार इनाम का मजा मिला, फूला न समाया, लेकिन मनोरमा अभी तक रोहिणी से चौंकतो रहती थी। वह कुछ साफ-साफ तो न कह सकती थी, पर शखघर