का रोहिणी के पास आना-जाना उसे अच्छा न लगता था।
जिस दिन मनोरमा अपने पिता की वसीयत लेकर लौंगी के पास गयी थी, उसी दिन की बात है—सन्ध्या का समय था। राजा साहब पाईबाग में होज के किनारे बैठे मछलियों को आटे की गोलियाँ खिला रहे थे। एकाएक पाँव की आहट पाकर सिर उठाया तो देखा, रोहिणी आकर खड़ी हो गयी है। आज रोहिणी को देखकर राजा साहब को बड़ी करुणा आयी! वह नैराश्य और वेदना की सजीव मूर्ति-सी दिखायी देती थी, मानो कह रही थी—तुमने मुझे क्यों यह दण्ड दे रखा है? मेरा क्या अपराध है? क्या ईश्वर ने मुझे सन्तान न दी, तो इसमें मेरा कोई दोष था? तुम अपने भाग्य का बदला मुझसे लेना चाहते हो? अगर मैने कटुवचन ही कहे थे, तो क्या उसका यह दण्ड था?
राजा साहब ने कातर स्वर में पूछा—कैसे चली रोहिणी? आओ यहाँ बैठो।
रोहिणी—आपको यहाँ बैठे देखा, चली आयी। मेरा आना बुरा लगा हो, तो चली जाऊँ?
राजा साहब ने व्यथित कण्ठ से कहा—रोहिणी क्यों लज्जित करती हो? मैं तो स्वयं लज्जित हूँ। मैंने तुम्हारे साथ बड़ा अन्याय किया है और नहीं जानता, मुझे उसका क्या प्रायश्चित करना पड़ेगा।
रोहिणी ने सूखी हँसी हँसकर कहा—आपने मेरे साथ कोई अन्याय नहीं किया। आपने वही किया, जो सभी पुरुष करते हैं। और लोग छिप-छिपे करते हैं, राजा लोग वही काम खुले खुले करते हैं। स्त्री कभी पुरुषों का खिलौना है, कभी उनके पाँव की जूती। इन्हीं दो अवस्थानों में उसकी उम्र बीत जाती है। यह आपका दोष नहीं हम स्त्रियों को ईश्वर ने इसी लिए बनाया ही है। हमें यह सब चुपचाप सहना चाहिए, गिला या मान करने का दण्ड बहुत कठोर होता है, और विरोध करना तो जीवन का सर्वनाश करना है।
यह व्यंग्य न था, बल्कि रोहिणी की दशा की सच्ची व निष्पक्ष आलोचना थी। राजा साहब सिर झुकाये सुनते रहे। उनके मुँह से कोई जवाब न निकला। उनकी दशा उस शराबी की-सी थी, जिसने नशे में तो हत्या कर डाली हो। किन्तु अब होश में आने पर लाश को देखकर पश्चात्ताप और वेदना से उसका हृदय फटा जाता हो।
रोहिणी फिर बोली—आज सोलह वर्ष हुए, जब मै रूठकर घर से बाहर निकल भागी थी। बाबू चक्रधर के आग्रह से लौट आयी। वह दिन है और आज का दिन है, कभी आपने भूलकर भी पूछा कि तू मरती है या जीती? इससे तो यह कहीं अच्छा होता कि आपने मुझे चले जाने दिया होता। क्या आप समझते हैं कि मैं कुमार्ग की ओर जाती? यह कुलटाओं का काम है। मैं गङ्गा की गोद के सिवा और कहीं न जाती। एक युग तक घोर मानसिक पीड़ा सहने से तो एक क्षण का कष्ट कहीं अच्छा होता; लेकिन आशा! हाय आशा! इसका बुरा हो। यही मुझे लौटा लायी। चक्रधर का तो चल बहाना था। यही अभागिन आशा मुझे लौटा लायी और इसी ने मुझे फुसला-फुसलाकर