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[कायाकल्प
 


हुआ कि कहीं रोहिणी उठकर कह न बैठे-आप यहाँ क्यों आये? वह इसी दुविधा में आध घण्टे तक वहाँ खड़े रहे। कई वार धीरे-धीरे पुकारा भी, पर रोहिणी न मिनकी। इतनी देर में उसने एक बार भी करवट न ली। यहाँ तक कि उसकी साँस भी न सुनायी दी। ऐसा मालूम हो रहा था कि वह मक्र किये पड़ी है ओर देख रही है कि राजा साहब क्या करते हैं। शायद परीक्षा ले रही है कि अब भी इनका दिल साफ हुआ या नहीं। गाफिल नींद में पड़े हुए प्राणी को श्वास क्रिया इतनी नि:शब्द नहीं हो सकती। जरूर बहाना किये पड़ी हुई है, मेरी आहट पाकर चादर ओढ़ ली होगी। मान के साथ ही इसके स्वभाव मे विनोद भी तो बहुत है। पहले भी तो इस तरह की नकले किया करती थी। मुझे पाते देखकर कहीं छिप जाती और जब मे निराश होकर बाहर जाने लगता, तो हँसती हुई न जाने किधर से निकल पाती। उसके चुहल और दिल्लगी की कितनी ही पुरानी बातें राजा साहब को याद आ गयीं। उन्होंने साहस करके कमरे में कदम रखा, पर अब भी किसी तरह का शब्द न सुनकर उन्हें खयाल आया, कहीं रोहिणी ने झूठ मूठ चादर तो नहीं तान दी है। मुझे चक्कर में डालने के लिए चारपाई पर चादर तान दी हो और आप किसी जगह छिपो हो। वह उसके धोखे में नहीं आना चाहते थे। उन्हें एक पुरानी बात याद आ गयी, जब रोहिणी ने उनके साथ इसी तरह को दिल्लगी की थी, और यह कहकर उन्हें खूब आडे हाथों लिया था कि आपकी प्रिया तो वह हैं, जिन्हें आपने जगाया है, मैं आपकी कोन होती हूँ? जाइए, उन्हीं से बोलिए-हँसिए। वह विनोदिनी आज फिर वही अभिनय कर रही है। इस अवसर के लिए कोई चुभती हुई बात गढ़ रखी होगी--बीस बरस के बाद सूरत क्या याद रह सकती है? राजा साहब का साठवॉ साल था, लेकिन इस वक्त उन्हें इस क्रीड़ा में यौवन-काल का-सा आनन्द और कुतूहल हो रहा था। वह दिखाना चाहते थे कि वह उसका कौशल ताड़ गये, वह उन्हें धोखा न दे सकेगी, लेकिन जब लगभग प्राध घण्टे तक खड़े रहने पर भी कोई आवान या आहट न मिली, तो उन्होंने चारों तरफ चौकन्नी आँखों से देखकर धीरे से चादर हटा दी। रोहिणी सोयी हुई थी, लेकिन जब झुककर उसके मुख की ओर देखा, तो चौंककर पीछे हट गये। वह रोहिणी न थी, रोहिणी का शव था। बीस वर्ष की चिन्ता, दुःख, ईर्ष्या और नैराश्य के सताप से जर्जर शरीर आत्मा के रहने योग्य कब रह सकता था। उन निर्जीव, स्थिर, अनिमेष नेत्रों में अब भी अतृप्त आकाक्षा झलक रही थी। उनमें तिरस्कार था, व्यग्य था, गर्व था। दोनों ज्योति-हीन आँखें परित्यक्ता के जीवन को ज्वलन्त आलोचनाएँ थीं। जीवन की सारी दशाएँ, सारी व्यथाएँ उनमें सार-रूप से व्यक्त हो रही थीं। वे तीक्ष्ण वाणों के समान राना साहब के हृदय में चुभी जा रही थीं, मानो कह रही थीं-अब तो तुम्हारा कलेजा ठण्ढा हुआ। अब मीठी नींद सोनो, मुझे परवा नहीं है।

राजा साहब ने दोनों आँखें बन्द कर ली और रोने लगे। उनकी आत्मा इस अमानुपीय निष्ठुरता पर उन्हें धिक्कार रही थी। किसी प्राणी के प्रति अपने कर्तव्य का