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[कायाकल्प
 


रनिवास में आने की मनाही कर दी गयी है। रोहिणी ने प्राण देकर मनोरमा पर विजय पायी है। अब वसुमती और रामप्रिया पर राजा साहब की कुछ विशेष कृपा हो गयी है। दूसरे तीसरे दिन जगदीशपुर चले जाते हैं और कभी कभी दिन का भोजन भी यहीं करते हैं। वह अब अपने पापों का प्रायश्चित्त कर रहे हैं। रियासत मे अब अन्वेर भी ज्यादा होने लगा है। मनोरमा की खोली हुई शालाएँ बन्द होती जा रही हैं। मनोरमा सब देखती और समझती है, पर मुँह नहीं खोल सकती। उसके सौभाग्य-सूर्य का पतन हो रहा है। वही राजा साहब, जो उससे बिना कहे सैर करने भी न जाते थे, अब हफ्ता उसकी तरफ झॉकते तक नहीं। नौकरों-चाकरों पर भी अत्र उसका प्रभाव नहीं रहा। वे उसकी बातों को परवाह नहीं करते। इन गवारों को हवा का रुख पहचानते देर नहीं लगती। रोहिणी का आत्म-बलिदान निष्फल नहीं हुआ।

शखधर को अब एक नयी चिन्ता हो गयी है। राजा साहब के रूठने से छोटी नानी नी मर गयी। क्या पिताजी के रूठने से अम्मॉजी का भी यही हाल होगा? अम्माँजी भी तो दिन दिन घुलती जाती हैं। जब देखो, तब रोया करती है। उसका नाम स्कूल में लिखा दिया है। स्कूल से छुट्टी पाकर वह सीधे लोगो के पास जाता है और उससे तीर्थयात्रा की बातें पूछता है। यात्री लोग कहाँ ठहरते हैं, क्या खाते हैं, जहाँ रेलें नहीं है, वहाँ लोग कैसे जाते हैं, चोर तो नहीं मिलते? लोगी उसके मनोभावो को ताड़ती है, लेकिन इच्छा न होते हुए भी उसे सारी बातें बतानी पड़ती हैं। वह मुँझलाती है, घुड़क बैठती है, लेकिन जब वह किशोर आग्रह करके उसकी गोद में बैठ जाता है, तो उसे दया था जाती है। छुट्टियों के दिन शखधर पितृ-गृह के दर्शन करने अवश्य जाता है। वह घर उसके लिए तीर्थ है, वह भक्त की श्रद्धा और उपासक के प्रेम से उस घर में कदम रखता है और जब तक वहाँ रहता है, उसपर भक्ति-गर्व का नशा-सा छाया रहता है। निर्मला की ऑखे उसे देखने से तृप्त ही नहीं होती। उसके घर में आते ही प्रकाश-सा फैल जाता है। वस्तुओ की शोभा बढ़ जाती है। दादा और दादी दोनों उसको बालो त्साह से भरी बातें सुनकर मुग्ध हो जाते हैं, उनके हृदय पुलकित हो उठते हैं, ऐसा जान पड़ता है, मानो चक्रधर स्वय बालरूप धारण करके उनका मन हरने आ गया है।

एक दिन निर्मला ने कहा-बेटा, तुम यहीं आके क्यों नहीं रहते? तुम चले जाते हो, तो यह घर काटने दौड़ता है। शखधर ने कुछ सोचकर गम्भीर भाव से कहा-अम्मॉनी तो आती ही नहीं। वह क्यों कमी यहाँ नहीं पाती, दादीनी?

निर्मला-क्या जाने बेटा, मैं उनके मन की बात क्या जानूँ? तुम कभी कहते नहीं। आज फहना, देखो क्या कहती हैं?

शखधर-नहीं दादीजी, वह रोने लगेंगी। जब थोड़े दिनों में मैं गद्दी पर बैठेंगा, तो यही मेरा राज भवन होगा। तभी अम्माँजी आयेंगी।

निर्मला-जल्दी से बैठो बेटा, हम भी देख लें।