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पृष्ठ:कायाकल्प.djvu/२७८

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शयाकल्प]
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शखधर-मै बाबूजी के नाम से एक स्कूल खोलूँगा; देख लेना। उसमें किसी लड़के से फीस न ली जायगी।

वजघर-और हमारे लिए क्या करोगे वेटा ?

शंखधर-श्रापके लिए अच्छे अच्छे सितारिये बुलाऊँगा। आप उनका गाना सुना कीजिएगा। आपको गाना किसने सिखाया, दादाजी?

वनधर-मैने तो एक साधु से यह विद्या सीखी, बेटा ! बरसों उनकी ख़िदमत की, तब कहीं जाके वह प्रसन्न हुए। उन्होंने मुझे ऐसा पाशीर्वाद दिया कि थोड़े ही दिनों मे मै गाने बजाने मे पका हो गया । तुम भी सीख लो वेटा; में बड़े शौक से सिखाऊँगा। राजायो महारानाओं के लिए तो यह विद्या है ही, वेटा, वही तो गुणियों का गुण परख.फर उनका श्रादर कर सकते हैं। जिन्हें यह विद्या या गयी, बस, समझ लो कि उन्हें किसी बात की कमी न रहेगी। वह जहाँ रहेगा, लोग उसे सिर-आँखो पर बिठायेंगे । मैने तो एक बार इसी विद्या की बदौलत बदरीनाथ की यात्रा की थी। पैदल चलता था। जिस गाँव मे शाम हो जाती, किसी भले श्रादमी के द्वार पर चला जाता और दो-चार चीजें सुना देता । बस, मेरे लिए सभी बातों का प्रबन्ध हो जाता था।

शखधर ने विस्मित होकर कहा-सच ! तब तो में जरूर सीलूंगा।

वज्रधर-जरूर सीख लो वेटा ! लायो, आज ही से श्रारम्भ कर दूं।

शस्खधर को संगीत से स्वाभाविक प्रेम था। ठाकुरद्वारे में नब गाना होता, वह बढ़े चाव से सुनता। खुद भी एकान्त में बैठा गुन-गुनाया करता था। ताल-स्वर का शान उसे सुनने ही मे हो गया था। एक बार भी कोई राग सुन लेता, तो उसे याद हो जाता । योगियों के कितने ही गीत उसे याद थे। खेजरो वनाकर वह सूर, कबीर, मीरा श्रादि सन्तों के पद गाया करता था। इस वक्त जो उसने कबीर का एक पद गाया, तो मुशीजी उसके सगीत-शान और स्वर लालित्य पर मुग्ध हो गये। बोले-बेटा, तुम तो बिना सिखाये ही ऐसा अच्छा गा लेते हो। तुम्हे तो मैं थोड़े ही दिनों में ऐसा बना दंगा कि अच्छे-अच्छे उस्ताद कानी पर हाथ धरेंगे । पाखिर मेरे ही पोते तो हो । वस, तुम मेरे नाम पर एक संगीतालय खोल देना।

शखधर-जी हाँ, उसमें यही विद्या सिसायी जायगी।

निर्मला-अपनी बुदिया दादीजी के लिए क्या फरोगे, वेटा ?

शखधर-तुम्हारे लिए एक डोली रख दूँगा, जिसे दो कदार दोयेंगे। उसी पर चैटफर तुम नित्य गंगा स्नान करने लाना।

निर्मला-में डोली पर न बैठेगी। लोग हँसने कि नहीं, कि राजा साहब को दादी डोली पर बैठी जा रही है।

शलघर-वाद ! ऐसे श्राराम को नवारी और कौन होगी।

इस तरह दोनों प्राणियों का मनोरजन परके जब वह चलने लगा. टो निर्मला द्वार पर खड़ी हो गयी, जहाँ ते पद मोटर को दूर तक जाते हुए देखती रहे।