सहसा शखधर ड्योढी मे खड़ा हो गया और बोला-दादीजी, आपसे कुछ माँगना चाहता हूँ।
निर्मला ने विस्मित होकर सजल नेत्रों से उसे देखा और गद्गद होकर बोली क्या माँगते हो, बेटा?
शखधर-मुझे आशीर्वाद दीजिए कि मेरी मनोकामना पूरी हो!
निर्मला ने पोते को कण्ठ से लगाकर कहा-भैया, मेरा तो रोयाँ रोयाँ तुम्हें आशीर्वाद दिया करता है। ईश्वर तुम्हारी मनोकामनाएं पूरी करें।
शखधर ने उनके चरणों पर सिर झुकाया और मोटर पर जा बैठा। निर्मला चौखट पर खड़ी मोटरकार को निहारती रही। मोड़ पर आते ही मोटर तो आँखों से ओझल हो गयी, लेकिन निर्मला उस समय तक वहाँ से न हटी जब तक कि उसकी ध्वनि क्षीण होते होते आकाश में विलीन न हो गयी। अन्तिम ध्वनि इस तरह कान में पायी, मानो अनन्त की सीमा पर बैठे किसी प्राणी के अन्तिम शब्द हो। जब यह आधार भी न रह गया, तो निर्मला रोती हुई अन्दर चली गयी।
शखधर घर पहुंचा, तो अहल्या ने पूछा-आज इतनी देर कहाँ लगायी बेटा? मैं कबसे तुम्हारी राह देख रही हूँ।
शखघर--अभी तो ऐसी बहुत देर नहीं हुई, अम्माँ! जरा दादीजी के पास चला गया था। उन्होंने तुम्हें आज एक सन्देशा कहला भेजा है।
अहल्या-क्या सन्देशा है, सुनूं? कुछ तुम्हारे बाबूजी की खबर तो नहीं मिली है?
शखघर--नहीं। बाबूजी की खबर नहीं मिली। तुम कभी-कभी वहाँ क्यों नहीं चली जाती?
अहल्या-क्या इस विषय मे कुछ कहती थी?
शखधर-कहती तो नहीं थी, पर उनकी इच्छा ऐसी मालूम होती है। क्या इसमें कोई हरज है?
अहल्या ने ऊपरी मन से यह तो कह दिया--हरज तो कुछ नहीं, हरज क्या है, घर तो मेरा वही है, यहाँ तो मेहमान हूँ। लेकिन भाव से साफ मालुम होता था कि वह वहाँ जाना उचित नहीं समझती। शायद वह कह सकती, तो कहती-वहाँ से तो एक बार निकाल दी गयी, अब कौन मुँह लेकर जाऊँ? क्या अब में कोई दूसरी हो गयी हूँ? बालक से यह बात कहनी मुनासिब न थी।
अहल्या तश्तरी में मिठाइयाँ और मेवे लायी और एक लौंडी से पानी लाने को कहकर बेटे से बोली--वहाँ तो कुछ जलपान न किया होगा, खा लो। आज तुम इतने उदास क्यों हो?
शखधर ने तश्तरी की ओर बिना देखे ही कहा- इस वक्त तो खाने का जी नहीं चाहता, अम्माँ!
एक क्षण के बाद उसने कहा-क्यों अम्माँजी, बाबूजी को हम लोगों की याद भी