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कायाकल्प]
२९५
 

कभी आती होगी?

अहल्या ने सजल नेत्र होकर कहा—क्या जानें बेटा, याद आती तो काले कोसो बैठे रहते!

शंखधर—क्या वह बड़े निष्ठुर हैं, अम्माँ?

अहल्या रो रही थी, कुछ न बोल सकी।

शंखधर—मुझे देखें, तो पहचान जायँ कि नहीं, अम्माँजी?

अहल्या फिर भी कुछ न बोली—उसका कण्ठ स्वर अश्रुप्रवाह में डूबा जा रहा था।

शंखधर ने फिर कहा—मुझे तो मालूम होता है अम्माजी, कि वह बहुत ही निर्दयी हैं, इसी से उन्हें हम लोगों का दुःख नहीं जान पड़ता। अगर वह भी इसी तरह रोते, तो जरूर आते। मुझे एक दफा मिल जाते, तो मैं उन्हें कायल कर देता। आप न-जाने कहाँ बैठे हैं, किसी का क्या हाल हो रहा है, इसकी सुधि ही नहीं। मेरा तो कभी, कभी ऐसा चित्त होता है कि देखूँ तो प्रणाम तक न करूँ, कह दूँ—आप मेरे होते कौन है, आप ही ने तो हम लोगों को त्याग दिया है।

अब अहल्या चुप न रह सकी, काँपते हुए स्वर में बोली—बेटा, उन्होंने हमें त्याग नहीं दिया है। वहाँ उनकी जो दशा हो रही होगी, उसे मैं ही जानती हूँ। हम लोगों की याद एक क्षण के लिए भी उनके चित्त से न उतरती होगी। खाने पीने का ध्यान भी न रहता होगा। हाय! यह सब मेरा ही दोष है, बेटा! उनका कोई दोष नहीं।

शंखधर ने कुछ लज्जित होकर कहा—अच्छा अम्माँजी, यदि मुझे देखें, तो वह पहचान जायँ कि नहीं?

अहल्या—तुझे? मैं तो जानती हूँ, न पहचान सकें। तब तू बिलकुल जरा सा बच्चा था। आज उनको गये दसवाँ साल है। न-जाने कैसे होंगे। मैं तो तुम्हें देख देखकर जीती हूँ, वह किसको देखकर दिल को ढाढस देते होंगे। भगवान् करें, जहाँ रहें, कुशल से रहें। बदा होगा, तो कभी भेंट हो ही जायगी।

शंखधर अपनी ही धुन में मस्त था, उसने यह बातें सुनी ही नहीं। बोला—लेकिन अम्माँजी, मैं तो उन्हें देखकर फौरन् पहचान जाऊँ। वह चाहे किसी वेष में हों, मै पहचान लूँगा।

अहल्या—नही बेटा, तुम भी उन्हें न पहचान सकोगे। तुमने उनकी तसवीरें ही तो देखी हैं। ये तसवीरें बारह साल पहले की हैं। फिर, उन्होंने केश भी बढ़ा लिये होंगे।

शंखधर ने कुछ जवाब न दिया। बगीचे में जाकर दीवारों को देखता रहा। फिर अपने कमरे में आया और चुपचाप बैठकर कुछ सोचने लगा। उसका मन भक्ति श्रीर उल्लास से भरा हुआ था। क्या मैं ऐसा बहुत छोटा हूँ? मेरा तेरहवाँ साल है। छोटा नहीं हूँ। इसी उम्र में कितने ही आदमियों ने बड़े-बड़े काम कर डाले हैं। मुझे करना