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कायाकल्प]
३०१
 


शंखधर ने दोनों हाथों से हृदय को सँभाले हुए तसवीर पर एक भय-कम्पित दृष्टि डाली और पहचान गया। हाँ, यह चक्रधर ही की तसवीर थी। उसकी देह शिथिल पड़ गयी, हृदय का धड़कना शान्त हो गया। आशा, भय, चिन्ता और अस्थिरता से व्यग्र होकर वह हतबुद्धि सा खड़ा रह गया, मानो किसी पुरानी बात को याद कर रहा हो।

वृद्धा ने उत्सुकता से पूछा—बेटा, कुछ पहचान रहे हो?

शंखधर ने कुछ उत्तर न दिया।

वृद्धा ने फिर पूछा—चुप कैसे हो भैया, तुमने अपने पिताजी की जो सूरत देखी है, उससे यह तस्वीर कुछ मिलती है?

शंखधर ने अब भी कुछ उत्तर न दिया, मानो उसने कुछ सुना ही नहीं।

सहसा उसने निद्रा से जागे हुए मनुष्य की भाँति पूछा—वह इधर उत्तर ही की ओर गये हैं न? आगे कोई गाँव पड़ेगा?

वृद्धा—हाँ बेटा, पाँच कोस पर गाँव है! भला-सा उसका नाम है, हाँ साईंगंज, साईंगंज; लेकिन आज तो तुम यहीं रहोगे?

शंखधर ने केवल इतना कहा—नहीं माता, आज्ञा दीजिए और खँजरी उठाकर चल खड़ा हुआ। युवतियाँ ठगी-सी खड़ी रह गयीं। जब तक वह निगाहों से छिप न गया, सब की-सब उसकी ओर टकटकी लगाये ताकती रहीं; लेकिन शंखधर ने एक बार भी पीछे फिरफर न देखा।

सामने गगनचुम्बी पर्वत अन्धकार में विशाल काय राक्षस की भाँति खड़ा था। शंखधर बड़ी तीव्र गति से पतली पगडण्डी पर चला जा रहा था। उसने अपने आपको उसी पगडण्डी पर छोड़ दिया है। वह कहाँ ले जायगी, वह नहीं जानता। हम भी उन जीवन-रूपी पतली, मिटी-मिटी पगडण्डी पर क्या उसी भाँति तीव्र गति से दौड़े नहीं चले जा रहे हैं? क्या हमारे सामने उनसे भी ऊँचे अन्धकार के पर्वत नहीं खड़े हैं।


४२

रात्रि के उस अगम्य अन्धकार में शंखधर भागा चला जा रहा था! उसके पैर पत्थर के टुकड़ों से चलनी हो गये थे। सारी देह थककर चूर हो गयी थी, भूख के मारे आँखों के सामने अँधेरा छाया जाता था, प्यार के मारे कण्ठ में काँटे पड़ रहे थे, पैर कहीं रखता था, पड़ते कहीं थे, पर वह गिरता-पड़ता भागा चला जाता था। अगर वह प्रातःकाल तक साईंगंज पहुँचा, तो सम्भव है, चक्रधर कहीं चले जायँ और फिर उस अनाथ की पाँच साल की मेहनत और दौड़-धूप पर पानी न फिर जाय। सर्य निकलने के पहले उसे वहाँ पहुँच जाना था, चाहे इसमें प्राण ही क्यों न चले जायँ।

हिंस्र पशुओं का भयंकर गर्जन सुनायी देता था, अँधेरे में खड्ड और खाई का पता न चलता था; पर उसे अपने प्राणों की चिन्ता न थी। उसे केवल धुन थी—'मुझे सूर्योदय से पहले साईंगंज पहुँच जाना चाहिए।' आह! लाड़-प्यार में पले हुए बालक, तुझे मालूम नहीं कि तू कहाँ जा रहा है! साईंगंज की राह भूल गया। इस मार्ग से