तू और जहाँ चाहे पहुँच जाय, पर साईंगंज नहीं पहुँच सकता।
गगन-मण्डल पर ऊषा का लोहित प्रकाश छा गया। तारागण किसी थके हुए पथिक की भाँति अपनी उज्ज्वल आँखें बन्द करके विश्राम करने लगे। पक्षीगण वृक्षों पर चहकने लगे, पर साईंगंज का कहीं पता न चला।
सहसा एक बहुत दूर की पहाड़ी पर कुछ छोटे छोटे मकान बालिकाओं के घरौंदे की तरह दिखायी दिये। दो चार आदमी भी गुड़ियों के सदृश चलते-फिरते नजर आये। वह साईंगंज आ गया। शङ्खधर का कलेजा धक-धक करने लगा। उसके जीर्ण शरीर में अद्भुत स्फूर्ति का संचार हो गया, पैरो में न जाने कहाँ से दुगुना बल आ गया। वह और वेग से चला। वह सामने मुसाफिर की मंजिल है! वह उसके जीवन का लक्ष्य दिखायी दे रहा है! वह इसके जीवन-यज्ञ की पूर्णाहुति है। आह! भ्रात बालक! वह साईंगंज नहीं है।
पहाड़ी की चढ़ाई कठिन थी। शंखधर को ऊपर चढ़ने का रास्ता न मालूम था, न कोई आदमी ही दिखायी देता था, जिससे रास्ता पूछ सके। वह कमर बाँधकर चढ़ने लगा।
गाँव के एक आदमी ने ऊपर से आवाज दी इधर से कहाँ आते हो भाई? रास्ता तो पच्छिम की ओर से है! वहीं पैर फिसल जाय, तो २०० हाथ नीचे जाओ।
लेकिन शंखधर को इन बातों के सुनने की फुरसत कहाँ थी? वह इतनी तेजी से ऊपर बढ़ रहा था कि उस आदमी को आश्चर्य हो गया। दम के दम में वह ऊपर पहुँच गया।
किसान ने शंखधर को सिर से पाँव तक कुतूहल से देखकर कहा—देखने में तो एक हड्डी के आदमी हो; पर हो बड़े ही हिम्मती। इधर से आने की आज तक किसी की हिम्मत नहीं पड़ती थी। कहाँ घर है?
शङ्खधर ने दम लेकर कहा—बाबा भगवानदास अभी यहीं हैं न?
किसान—कौन बाबा भगवानदास? यहाँ तो वह नहीं आये। तुम कहाँ से आते हो?
शंखधर—बाबा भगवानदास को नहीं जानते? वह इसी गाँव में तो आये हैं। साईंगंज यही है न?
किसान—साईंगंज! अरर! साईंगंज तो तुम पूरब छोड़ आये। इस गाँव का नाम बेंदो है।
शङ्खधर ने हताश होकर कहा—तो साईंगंज यहाँ से कितनी दूर है?
किसान—साईंगंज तो पड़ेगा यहाँ से कोई पाँच कोस; मगर रास्ता बहुत बीहड़ है।
शङ्खधर कलेजा थामकर बैठ गया! पाँच कोस की मंजिल, उसपर रास्ता बीहड़! उसने आकाश की ओर एक बार नैराश्य में डूबी हुई आँखों से देखा और सिर झुकाकर सोचने लगा—यह अवसर फिर हाथ न आयेगा! अगर आराध्यदेव के दर्शन आज न किये, तो फिर न कर सकूँगा। सारा जीवन दौड़ते ही बीत जायगा। भोजन