पृष्ठ:कायाकल्प.djvu/२८९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
३०४
[कायाकल्प
 

बनकर भीख माँगेगा।

लेकिन ज्यों ज्यों गाँव निकट आता था, शंखधर के पाँव सुस्त पड़ते जाते थे। उसे यह शंका होने लगी कि वह यहाँ से चले न गये हों। अब उनसे भेंट न होगी। वह इस शंका को कितना ही दिल से निकालना चाहता था, पर वह अपना आसन न छोड़ती थी।

अच्छा, अगर उनसे यहाँ भेंट न हुई, तो क्या वह और आगे जा सकेगा? नहीं, अब उससे एक पग भी न चला जायगा! अगर भेंट होगी, तो यहीं होगी, नहीं तो फिर कौन—जाने क्या होगा। अच्छा, अगर भेंट हुई और उन्होंने उसे पहचान लिया तो? पहचान कर वह उसकी ओर से मुँह फेर लें तो? तब वह क्या करेगा? उस दशा में क्या वह उनके पैरों पड़ सकेगा? उनके सामने रो सकेगा, अपनी विपत्ति-कथा कह सकेगा। कभी नहीं। उसका आत्म-सम्मान उसकी जबान पर मुहर लगा देगा। वह फिर एक शब्द भी मुँह से न निकाल सकेगा, आँसू की एक बूँद भी उसकी आँखों से निकलेगी। वह जबरदस्ती उनसे आत्मीयता न जतायेगा, 'मान-न मान, मैं तेरा मेहमान' न बनेगा। तो क्या वह इतने निर्दय, इतने निष्ठुर हो जायँगे? नहीं, वह ऐसे नहीं हो सकते। हाँ, यह हो सकता है कि उन्होंने कर्त्तव्य का जो आदर्श अपने सामने रखा है और जिस निःस्वार्थ कर्म के लिए राज-पाट को त्याग दिया है, वह उनके मनोभावों को जबान पर न आने दे, अपने प्रिय पुत्र को हृदय से लगाने के लिए विकल होने पर भी वह छाती पर पत्थर की शिला रखकर उसकी ओर से मुँह फेर लें। तो क्या इस दशा में उसका उनके पास जाना, उन्हें इतनी कठिन परीक्षा में डालना, उन्हें आदर्श से हटाने की चेष्टा करना उचित है? कुछ भी हो, उतनी दूर आकर अब उनके दर्शन किये बिना वह न लौटेगा। उसने ईश्वर से प्रार्थना की कि वह उसे पहचान न सकें। वह अपने मुँह से एक शब्द भी ऐसा न निकालेगा, जिससे उन्हें उसका परिचय मिल सके। वह उसी भाँति दूर से उनके दर्शन करके अपने को कृतार्थ समझेगा, जैसे उनके और भक्त करते हैं।

साईंगंज दिखायी देने लगा। स्त्री पुरुष खेतों में अनाज काटते नजर आने लगे। अब वह गाँव के डाँड़ पर पहुँच गया। कई आदमी उसके सामने से होकर निकल भी गये, पर उसने किसी से कुछ नहीं पूछा। अगर किसी ने कह दिया—बाबाजी हैं, तो वह क्या करेगा? इसी असमञ्जस में पड़ा हुआ वह मन्दिर के सामने चबूतरे पर बैठ गया। सहसा मन्दिर में से एक आदमी को निकलते देखकर वह चौंक पड़ा, अनिमेष नेत्रों से उसकी ओर एक क्षण देखा, फिर उठा कि उस पुरुष के चरणों पर गिर पड़े; पर पैर थरथरा गये, मालूम हुआ, कोई नदी उसकी ओर बही चली आती है—वह मूर्च्छित होकर गिर पड़ा।

वह पुरुष कौन था? वही, जिसकी मूर्ति उसके हृदय में बसी हुई थी, जिसका वह उपासक था।