दिया है। यदि वह अपने पति के घर जाकर इसका प्रायश्चित्त करे, तो कदाचित् ईश्वर उसका अपराध क्षमा कर दे। उसका डूबता हुआ हृदय इस तिनके के सहारे को जोरों से पकड़े हुए हैं, लेकिन हाय रे मानव हृदय! इस घोर विपत्ति में भी मान का भूत सिर से नहीं उतरता। जाना तो चाहती है, लेकिन उसके साथ यह शर्त है कि कोई बुलाये। अगर राजा साहब मुंशी जी से इस विषय में कुछ संकेत कर दें, तो उसके लिए अवश्य बुलावा आ जाय; पर राजा साहब से तो भेंट ही नहीं होती और भेंट भी होती है, तो कुछ कहने की हिम्मत नही पड़ती।
इसमें सन्देह नहीं कि वह अपने मन की बात मनोरमा से कह देती, तो बहुत आसानी से काम निकल जाता, लेकिन अहल्या का मन मनोरमा से न पहले कभी मिला था, न अब मिलता था। उससे यह बात कैसे कहती? जो मनोरमा अब गाने बजाने और सैरसपाटे में मग्न रहती है, उससे वह अपनी व्यथा कैसे कह सकेगी? वह कहे भी, तो मनोरमा क्यों उसके साथ सहानुभूति करने लगी? वह दिन-के-दिन और रात की रात पड़ी रोया करती है, मनोरमा कभी भूलकर भी उसकी बात नहीं पूछती, अपने राग रंग में मस्त रहती है। वह भला, अहल्या की पीर क्या जानेगी?
तो मनोरमा सचमुच राग रंग में मस्त रहती है? हाँ, देखने में तो यही मालूम होता है। लेकिन उसके हृदय पर क्या बीत रही है, यह कौन जान सकता है? वह आशा और नैराश्य, शान्ति और अशान्ति, गम्भीरता और उच्छृङ्खलता, अनुराग और विराग की एक विचित्र समस्या बन गयी है! अगर वह सचमुच हँसती और गाती है, तो उसके मुख की वह कान्ति कहाँ है, जो चन्द्र को लजाती थी, वह चपलता कहाँ है, जो हिरन को हराती थी। उसके मुख और उसके नेत्रों को जरा सूक्ष्म-दृष्टि से देखो, तो मालूम होगा कि उसकी हँसी उसका आर्तनाद है और उसका राग-प्रेम मर्मान्तक व्यथा का चिह्न। वह शोक की उस चरम सीमा को पहुँच गयी है, जब चिन्ता और वासना दोनों ही का अन्त, लज्जा और आत्म-सम्मान का लोप हो जाता है, जब शोक रोग का रूप धारण कर लेता है। मनोरमा ने कच्ची बुद्धि में यौवन जैसा अमूल्य रत्न देकर जो सोने की गुड़िया खरीदी थी, वह अब किसी पक्षी की भाँति उसके हाथों से उड़ गयी थी। उसने सोचा था, जीवन का वास्तविक सुख धन और ऐश्वर्य में है, किन्तु अब बहुत दिनों से उसे ज्ञात हो रहा था कि जीवन का वास्तविक सुख कुछ और ही है, और वह सबसे आजीवन वंचित रही। सारा जीवन गुड़िया खेलने ही में कट गया और अन्त में वह गुड़िया भी हाथ से निकल गयी। यह भाग्य-व्यंग्य रोने की वस्तु नहीं, हँसने की वस्तु है। उससे कहीं ज्यादा हँसते हैं, जितना परम आनन्द में हँस सकते हैं। प्रकाश जब हमारी सहन-शक्ति से अधिक हो जाता है, तो अन्धकार बन जाता है, क्योंकि हमारी आँखें ही बन्द हो जाती हैं।
एक दिन अहल्या का चित्त इतना उद्विग्न हुआ कि वह संकोच और झिझक छोड़ कर मनोरमा के पास आ बैठी। मनोरमा के सामने प्रार्थी के रूप में आते हुए उसे