पृष्ठ:कायाकल्प.djvu/३०६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
कायाकल्प]
३२१
 

ढ्योढा था; पर शंखधर ने कुश्ती मंजूर कर ली। चक्रधर बहुत कहते रहे—यह लड़का लड़ना क्या जाने, कभी लड़ा हो तो जाने। भला, यह क्या लड़ेगा; लेकिन शंखधर लँगोट कसकर अखाड़े में उतर ही तो पड़ा! उस समय चक्रधर की सूरत देखने योग्य थी। चेहरे पर एक रंग जाता था, एक रंग आता था। अपनी व्यग्रता को छिपाने के लिए अखाड़े से दूर जा बैठे थे, मानो वह इस बात से बिलकुल उदासीन है। भला, लड़को के खेल से बाबाजी का क्या सम्बन्ध? लेकिन किसी-न-किसी बहाने अखाड़े की ओर आ ही जाते थे। जब उस पट्ठे ने पहली ही पकड़ में शंखधर को धर दबाया, तो बाबाजी आवेश में कर स्वयं झुक गये, शंखधर ने जोर मारकर उस पट्ठे को ऊपर उठाया तो बाबाजी भी सीधे हो गये और जब शंखधर ने कुश्ती मार ली, तब तो चक्रधर उछल पड़े और दौड़कर शंखधर को गले लगा लिया। मारे गर्व के उनकी आँखें उन्मत्त सी हो गयीं। उस दिन अपने नियम के विरुद्ध उन्होंने रात को बड़ी देर तक गाना सुना।

शङ्खधर को कभी कभी प्रबल इच्छा होती थी कि पिताजी के चरणों पर गिर पड़ें और साफ-साफ कह दूँ। वह मन में कल्पना किया करता कि अगर ऐसा करूँ, तो वह क्या कहेंगे? कदाचित् उसी दिन मुझे सोता छोड़कर किसी और की राह लेंगे। इस भय से बात उसके मुँह तक आ के रुक जाती थी; मगर उसी के मन में यह इच्छा नहीं थी। चक्रधर भी कभी कभी पुत्र प्रेम से विकल हो जाते और चाहते कि उसे गले लगाकर कहूँ—बेटा, तुम मेरी ही आँखों के तारे हो; तुम मेरे ही जिगर के टुकड़े हो, तुम्हारी याद दिल से कभी न उतरती थी; सब कुछ भूल गया, पर तुम न भूले। वह शंखधर के मुख से उसकी माता की विरह व्यथा, दादी के शोक और दादा के क्रोध की कथाएँ सुनते कभी न थकते थे। रानी जी उससे कितना प्रेम करती थीं, यह चर्चा सुनकर चक्रधर बहुत दुखी हो जाते थे। जिन बाबाजी की रूखे-सूखे भोजन से तुष्टि होती थी, यहाँ, तक कि भक्तों के बहुत आग्रह करने पर भी खोये और मक्सन को हाथ से न छूते थे, वही बाबाजी इन पदार्थों को पाकर प्रसन्न हो जाते थे। वह स्वयं अब भी वही रुखा सूखा भोजन ही करते थे; पर शंखधर को खिलाने में जो आनन्द मिलता था, वह क्या कभी आप खाने में मिल सकता था?

इस तरह एक महीना गुजर गया और अब शङ्खधर को यह फिक्र हुई कि इन्हें किस बहाने से घर ले चलूँ। अहा, कैसे आनन्द का समय होगा, जब मैं इनके साथ घर पहुँचूँगा!

लेकिन बहुत सोचने पर भी उसे कोई बहाना न मिला। तब उसने निश्चय किया कि माताजी को पत्र लिखकर यहीं क्यों न बुला लूँ? माताजी पत्र पाते ही सिर के बल दौड़ी आयेंगी। सभी आयेंगे। तब देखूँ, यह किस तरह निकलते हैं। वह पछताया कि मैंने व्यर्थ ही इतनी देर लगायी। अब तक तो अम्माँजी पहुँच गयी होतीं। उसी रात को उसने अपनी माता के नाम पत्र डाल दिया। वहाँ का पता-ठिकाना, रेल का स्टेशन

२१