पृष्ठ:कायाकल्प.djvu/३११

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
३२६
[कायाकल्प
 

वागीश्वरी से अलग वह यहाँ न रह सकती थी। बोली—नहीं ख्वाजा साहब, यहाँ मुझे कोई तकलीफ नहीं है। आदमी को अपने दिन न भूलने चाहिए। इसी में १६ साल रही हूँ। जिन्दगी में जो कुछ सुख देखा, वह इसी घर में देखा। पुराने साथी का साथ कैसे छोड़ दूँ!

ख्वाजा—बाबू चक्रधर का अब तक कुछ पता न चला?

अहल्या—इसी लिहाज से तो मैं बड़ी बदनसीब हूँ, ख्वाजा साहब! उनको गये १५ साल गुजर गये। पाँच साल से लड़का भी गायब है। उन्हीं की तलाश में निकला हुआ है। लोग समझते होंगे कि इसकी सी सुखी औरत दुनिया में न होगी। और मैं अपनी किस्मत को रोती हूँ। इरादा था कि चलकर कुछ दिनों अम्माँजी के साथ अकेली पड़ी रहूँगी; पर अमीरी की बला यहाँ भी सिर से न टली। कहिए, अब यहाँ तो आपस में दंगा-फिसाद नहीं होता?

ख्वाजा—जी नहीं, अभी तक तो खुदा का फजल है; लेकिन यह देखता हूँ कि आपस में वह पहले की-सी मुहब्बत नहीं है। दोनों कोमों में कुछ ऐसे लोग हैं, जिनको इज्जत और सरवत दोनों को लड़ाते रहने पर ही कायम है। बस, वह एक न एक शिगूफा छोड़ा करते है। मेरा तो यह कोल है कि हिन्दू रहा, चाहे मुसलमान रहा, खुदा के सच्चे बन्दे रहो। सारी खूबियाँ किसी एक ही कौम के हिस्से में नहीं आयीं। न सब मुसलमान पाकीजा है, न सब हिन्दू देवता हैं, इसी तरह न सभी हिन्दू काफिर है, न सभी मुसलमान मोमिन। जो आदमी दूसरी कौम से जितनी नफरत करता है, समझ लीजिये कि वह खुदा से उतनी ही दूर है। मुझे आपसे कमाल हमदर्दी है, मगर चलने फिरने से मजबूर हूँ, वर्ना बाबू साहब जहाँ होते, वहाँ से खींच लाता।

ख्वाजा साहब जाने लगे, तो अहल्या ने इसलामा यतीमखाने के लिए पाँच हजार रुपये दान दिये। इस दान से मुसलमानों के दिलों पर भी उसका सिक्का बैठ गया। चक्रधर की याद फिर ताजी हो गयी। मुसलमान महिलाओं ने भी उसकी दावत की।

अहल्या को अब रोज ही किसी-न-किसी जलसे में जाना पड़ता, और वह बड़े शौक से जाती। दो ही सप्ताह में उसकी कायापलट-सी हो गयी। यश लालसा ने धन की उपेक्षा का भाव उसके दिल से निकाल दिया। वास्तव में वह समारोह में अपनी मुसीबतें भूल गयी। अच्छे अच्छे व्याख्यान तैयार करने में वह इतनी तत्पर रहने लगी, मानो उसे नशा हो गया है। वास्तव में यह नशा ही था। यश लालसा से बढ़कर दूसरा नशा नहीं।

वागीश्वरी पुराने बिचारों की स्त्री थीं। उसे अहल्या का यों घूम-घूमकर व्याख्यान देना और रुपए लुटाना अच्छा न लगता था। एक दिन उसने कह ही डाला—क्यों री अहल्या, तू अपनी सम्पत्ति लुटाकर ही रहेगी?

अहल्या ने गर्व से कहा—और धन है ही किसलिए, अम्माँजी? धन में यही बुराई है कि इससे विलासिता बदती है, लेकिन इसमें परोपकार करने की सामर्थ्य भी है।