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पृष्ठ:कायाकल्प.djvu/३४१

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[कायाकल्प
 

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शंखधर राजकुमार होकर भी तपस्वी है। विलास की किसी भी वस्तु से उसे प्रेम नहीं। दूसरों से वह बहुत प्रसन्न होकर बातें करता है। अहल्या और मनोरमा के पास वह घण्टों बैठा गप-शप किया करता है। दादा और दादी के समीप जाकर तो उसकी हँसी की पिटारी सी खुल जाती है, लेकिन सैर शिकार से कोसों भागता है। एकान्त में बैठा हुआ वह नित्य गहरे विचारों में मग्न रहता है। उसके जी में बार बार आता है कि पिताजी के पास चला जाऊँ, पर घरवालों के दुःख का विचार करके जाने की हिम्मत नहीं पड़ती। जब उसके पिता ने सेवाव्रत ले रखा है, तो वह किस हृदय से राजसुख भोगे? नरम-नरम तकिये उसके हृदय में काँटे के समान चुभते हैं, स्वादिष्ट भोजन उसे जहर की तरह लगता है।

पर सबसे विचित्र बात यह है कि वह कमला से भागता रहता है। युवती देवप्रिया अब वह रानी कमला नहीं है, जो हर्षपुर में तप और व्रत में मग्न रहती थी। वे सभी कामनाएँ, जो रमणी के हृदय में लहरें मारा करती हैं, उदित हो गयी हैं। यह नित्य नये रूप बदलकर शंखधर के पास आती है, पर ठीक उसी समय शंखधर को या तो कोई जरूरी काम बाहर ले जाता है, या वह कोई धार्मिक प्रश्न उठा देता है। रात को भी शंखधर कुछ न कुछ पढ़ता लिखता रहता है। कभी कभी सारी रात पढ़ने में कट जाती है। देवप्रिया उसकी राह देखती देखती सो जाती है। विपत्ति तो यह है कि देवप्रिया को पूर्व-जीवन की सभी बातें याद हैं, वायुयान का दृश्य भी याद है, पर वह सोचती है, एक बार ऐसा हुआ, तो क्या बार-बार होगा? उसने अपना वैधव्य कितने संयम से व्यतीत किया था। पूर्व कर्मों का प्रायश्चित्त इतने पर भी पूरा नहीं हुआ?

प्रकृति माधुर्य में डूबी हुई है। आधी रात का समय है। चारों तरफ चाँदनी छिटकी हुई है! वृक्षों के नीचे कैसा सुन्दर जाल बिछा हुआ है। क्या पक्षी हृदय को फँसाने के लिए? नदियों पर कैसा सुन्दर जाल है। क्या मीन-हृदय को तड़पाने के लिए? ये जाल किसने फैला रखे हैं?

देवप्रिया ने आज अपने आभूषण उतार दिये हैं, केश खोल दिये हैं और वियोगिनी के रूप में पति से प्रेम की भिक्षा माँगने जा रही है। आईने के सामने जाकर खड़ी हो गयी। आईना चमक उठा। देवप्रिया विजय गर्व से मुस्करायी। कमरे के बाहर निकली।

सहसा उसके अन्तःकरण में कहीं से आवाज आयी, 'सर्वनाश!' देवप्रिया के पाँव रुक गये। देह शिथिल पड़ गयी। उसने भीत-दृष्टि से इधर उधर देखा। फिर आगे बढ़ी।

उसी समय वायु बड़े वेग से चली। कमरे में कोई चीज 'खट-खट!' करती हुई नीचे गिर पड़ी। देवप्रिया ने कमरे में जाकर देखा। शङ्खधर का तैल-चित्र संगमरमर की भूमि पर गिरकर चूर-चूर हो गया था। देवप्रिया के अन्तःकरण में फिर वही आवाज आयी—सर्वनाश! उसके रोयें खड़े हो गये। पुष्प के समान कोमल शरीर मुरझा गया।