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[कायाकल्प
 


वह मूर्च्छित हो गया।

देवप्रिया के अन्तःकरण में फिर आवाज आयी–'सर्वनाश! सर्वनाश! सर्वनाश! घबराकर बोली—प्रियतम, तुम्हें क्या हो गया? हाय! तुम कैसे हुए जाते हो? हाय! मैं जानती कि मुझ पापिनी के कारण तुम्हारी यह दशा होगी, तो अन्तकाल तक वियोगाग्नि में जलती रहती, पर तुम्हारे निकट न आती। प्यारे, आँखें खोलो, तुम्हारी कमला रो रही है।

शंखधर ने आँखें खोल दीं। उनमें अकथनीय शोक था, असहनीय वेदना थी, अपार तृष्णा थी।

अत्यन्त क्षीण स्वर से बोला—प्रिये! फिर मिलेंगे। यह लीला उस दिन समाप्त होगी, जब प्रेम में वासना न रहेगी!

चाँदनी अब भी छिटकी हुई थी। वृक्षों के नीचे अब भी चाँदनी का जाल बिछा हुआ था। जल क्षेत्र में अब भी चाँदनी नाच रही थी। वायु संगीत अब भी प्रवाहित हो रहा था, पर देवप्रिया के लिए चारों ओर अन्धकार और शून्य हो गया था।

सहसा राजा विशालसिंह द्वार पर आकर खड़े हो गये।

देवप्रिया ने विलाप करके कहा—हाय नाथ! तुम मुझे छोड़कर कहाँ चले गये? क्या इसीलिए, इसी क्षणिक मिलाप के लिए मुझे हर्षपुर से लाये थे?

राजा साहब ने यह करुण-विलाप सुना और उनके पैरों-तले से जमीन निकल गयी। उन्होंने विधि को परास्त करने का संकल्प किया था। विधि ने उन्हें परास्त कर दिया। वह विधि को हाथों का खिलौना बनाना चाहते थे। विधि ने दिखा दिया, तुम मेरे हाथ के खिलौने हो। वह अपनी आँखों से जो कुछ न देखना चाहते थे, वह देखना पड़ा और इतनी जल्द! आज ही वह मुंशी वज्रधर के पास से लौटे थे। आज ही उनके मुँह से वे अहंकारपूर्ण शब्द निकले थे। आह! कौन जानता था कि विधि इतनी जल्द यह सर्वनाश कर देगा! इससे पहले कि वह अपने जीवन का अन्त कर दें, विधि ने उनकी आशाओं का अन्त कर दिया।

राजा साहब ने कमरे में जाकर शंखधर के मुख की ओर देखा। उनके जीवन का आधार निर्जीव पड़ा हुआ था। यही दृश्य आज से पचास वर्ष पहले उन्होंने देखा था। यही शंखधर था! हाँ, यही शंखधर था। यही कमला थी। हाँ, यही कमला थी। वह स्वयं बदल गये थे। उस समय दिल में मनसूबे थे, बड़े-बड़े इरादे थे। आज नैराश्य और शोक के सिवा कुछ न था।

उनके मुख से विलाप का एक शब्द भी न निकला। आँखों से आँसू की एक बूँद भी न गिरी। खड़े खड़े भूमि पर गिर पड़े और दम निकल गया।


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शंखधर के चले आने के बाद चक्रधर को संसार शून्य जान पड़ने लगा। सेवा का