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[कायाकल्प
 

होते हैं, पर उसके पीछे कोई इतना अन्धा नहीं हो जाता कि और सब काम छोड़कर बस उसी के नाम रोता रहे।

फिर सोचा—एक बार देख आने में हरज ही क्या है? कोई मुझे बाँध तो रखेगा नहीं। जब उस वक्त कोई न रोक सका, तो आज कौन रोकेगा? जरा देखूँ, किस ढंग से राज करता है। मेरे उपदेशों का कुछ फल हुआ, या पड़ गया उसी चक्कर में? धुन का पक्का तो जरूर है। कर्मचारियों के हाथ की कठपुतली तो शायद न बने, मगर कुछ कहा नहीं जा सकता। मानवीय चरित्र इतना जटिल है कि बुरे-से-बुरा आदमी देवता हो जाता है, और अच्छे-से-अच्छा आदमी भी पशु। मुझे देखकर झेंपेगा तो क्या! मै यों उसके सम्मुख जाऊँ ही क्यों? दूर ही से देख कर चला आऊँगा। रंग-ढंग तो दो-चार आदमियों से बातें करते ही मालूम हो जायगा।

यह सोचते-सोचते चक्रधर सो गये। रात को उन्हें एक भयंकर स्वप्न दिखाई दिया। क्या देखते हैं कि शंखधर एक नदी के किनारे उनके साथ बैठा हुआ है। सहसा दूर से एक नाव आती हुई दिखायी दी। उसमें से मन्नासिंह उतर पड़ा। उसने हँसकर कहा—बाबूजी, यही राजकुमार हैं न? मैं बहुत दिनों से खोज रहा हूँ। राजा साहब इन्हें बुला रहे हैं। शंखधर उठकर मन्नासिंह के साथ चला। दोनों नाव पर बैठे, मन्नासिंह डाँड़ चलाने लगा। चक्रधर किनारे ही खड़े रह गये। नाव थोड़ी ही दूर जाकर चक्कर खाने लगी। शंखधर ने दोनों हाथ उठाकर उन्हें बुलाया। वह दौड़े, पर इतने में नाव डूब गयी। एक क्षण में फिर नाव ऊपर आ गयी। मन्नासिंह पूर्ववत् डाँड़ चला रहा था, पर शंखधर का पता न था।

चक्रधर जोर से एक चीख मारकर जग पड़े। उनका हृदक धक-धक कर रहा था। उनके मुख से ये शब्द निकल पड़े—ईश्वर! यह स्वप्न है, या होनेवाली बात। अब उनसे वहाँ न रहा गया। उसी वक्त उठ बैठे, बकुचा लिया और चल खड़े हुए।

चाँदनी छिटकी हुई थी। चारों ओर सन्नाटा था। पर्वत श्रेणियाँ अभिलाषाओं की समाधियों-सी मालूम होती थीं। वृक्षों के समूह श्मशान से उठने वाले धूँए की तरह नजर आते थे। चक्रधर कदम बढ़ाते हुए पथरीली पगडण्डियों पर चले जाते थे।

चक्रधर की इस वक्त वह मानसिक दशा हो गयी थी, जब अपने ही को अपनी खबर नहीं रहती। वह सारी रात पथरीले पथ पर चलते रहे। प्रातःकाल रेलवे स्टेशन मिला। गाड़ी आयी, उसपर जा बैठे। गाड़ी में कौन लोग बैठे थे, उन्हें देख-देखकर लोग उनसे क्या प्रश्न करते थे, उसका वह क्या उत्तर देते थे, रास्ते में कौन-कौन से स्टेशन मिले, कब दोपहर हुई, कब संध्या हुई, इन बातों का उन्हें जरा भी ज्ञान न हुआ। पर वह कर वही रहे थे, जो उन्हें करना चाहिए था। किसी की बात का ऊट-पटाँग जवाब न देते थे, जिन गाड़ियों पर बैठना न चाहिए था, उनपर न बैठते थे, जिन स्टेशनों पर उतरना न चाहिए था, वहाँ न उतरते थे। अभ्यास बहुधा चेतना का स्थान ले लिया करता है।