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कायाकल्प]
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तीसरे दिन प्रातःकाल गाड़ी काशी जा पहुँची। ज्योंही गाड़ी गंगा के पुल पर पहुँची, चक्रधर की चेतना जाग उठी। सँभल बैठे। गंगा के बायें किनारे पर हरियाली छायी हुई थी। दूसरी ओर काशी का विशाल नगर ऊँची अट्टालिकाओं और गगनचुम्बी मंदिर-कलसों से सुशोभित, सूर्य के स्निग्ध आकाश से चमकता हुआ खड़ा था। मध्य में गगा मन्दगति से अनन्त की ओर दौड़ी चली जा रही थीं, मानो अभिमान से अटल नगर और उच्छृङ्खलता से झूमती हुई हरियाली से कह रही हों—अनन्त जीवन अनन्त प्रवाह में है। आज बहुत दिनों के बाद यह चिर-परिचित दृश्य देखकर चक्रधर का हृदय उछल पड़ा। भक्ति का उद्गार मन में उठा। एक क्षण के लिए वह अपनी सारी चिन्ताएँ भूल गये, गगा-स्नान की प्रबल इच्छा हुई। इसे वह किसी तरह न रोक सके।

स्टेशन पर कई पुराने मित्रों से उनकी भेंट हो गयी। उनकी सूरतें कितनी बदल गयी थीं। वे चक्रधर को देखकर चौंके, कुशल पूछी और जल्दी से चले गये। चक्रधर ने मन में कहा—कितने रूखे लोग हैं कि किसी को बातें करने की भी फुरसत नहीं।

वह एक ताँगे पर बैठकर स्नान करने चले। थोड़ी ही दूर गये थे कि गुरुसेवकसिंह मोटर पर सामने से आते दिखायी दिये। चक्रधर ने ताँगेवाले को रोक दिया। गुरुसेवक ने भी मोटर रोकी और पूछा—क्या अभी चले आ रहे हैं?

चक्रधर—जी हाँ, चला ही आता हूँ।

गुरुसेवक ने मोटर आगे बढ़ा दी। चक्रधर को इनसे इतनी रुखाई की आशा न थी। चित्त खिन्न हो उठा।

दशाश्वमेध घाट पहुँचकर ताँगे से उतरे। इसी घाट पर वह पहले भी स्नान किया करते थे। सभी पण्डे उन्हें जानते थे; पर आज किसी ने भी प्रसन्न-चित्त से उनका स्वागत नहीं किया। ऐसा जान पड़ता था कि उन लोगों को उनसे बातें करते जब्र हो रहा है। किसी ने पूछा, कहाँ कहाँ घूमें? क्या करते रहे?

स्नान करके चक्रधर फिर ताँगे पर आ बैठे और राजभवन की ओर चले। ज्यों-ज्यों भवन निकट आता था, उनका आशंकित हृदय अस्थिर होता जाता था।

ताँगा सिंह-द्वार पर पहुँचा। वह राज्य पताका, जो मस्तक ऊँचा किये लहराती रहती थी, झुकी हुई थी। चक्रधर का दिल बैठ गया। इतने जोर से धड़कन होने लगी, मानो हथौड़े की चोट पड़ रही हो।

ताँगा देखते ही एक बूढ़ा दरबान आकर खडा हो गया, चक्रधर को ध्यान से देखा और भीतर की ओर दौड़ा। एक क्षण में अन्दर हाहाकार मच गया। चक्रधर को मालूम हुआ कि वह किसी भयंकर जन्तु के उदर में पड़े हुए तड़फड़ा रहे हैं।

किससे पूछें, क्या विपत्ति आयी है? कोई निकट नहीं आता। सब दूर सिर झुकाये खड़े हैं। वह कौन लाठी टेकता हुआ चला आता है? अरे! यह तो मुंशी वज्रधर हैं। चक्रधर ताँगे से उतरे और दौड़कर पिता के चरणों पर गिर पड़े।