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कायाकल्प]
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मनोरमा-जी हॉ ! आपसे तो भाई साहब से भेंट नहीं हुई। गुरुसेवकसिह नाम है। कई महीनो से देहात में जमीदारी का काम करते हैं। हैं तो मेरे सगे भाई और पढ़े-लिखे भी खब है। लेकिन भलमनसी छ भी नहीं गयी। जब पाते है. लौंगी अम्मा से झूठ-मूठ तकरार करते हैं । न जाने उसमे इन्हें क्या अदावत है।

इतने में गुरुसेवकसिह लाल-लाल आँखें किये निकल पाये और मनोरमा से बोले-बाबूजी कहाँ गये हैं ? तुझे मालूम है कब तक पायेंगे ? मैं ग्राज ही फैसला कर लेना चाहता हूँ।

गुरुसेवेकसिंह की उम्र २५ वर्ष से अधिक न थी। लम्वे, छरहरे एवं रूपवान् थे, आँखों पर ऐनक थी, मुंह में पान का बीड़ा, देह पर तनजेब का कुरता, माँग निकली हुई । बहुत शौकीन आदमी थे ।

चक्रधर को बैठे देखकर वह कुछ झिझके और अन्दर लौटना ही चाहते थे कि लौंगो रोती हुई याकर चक्रधर के पास खड़ी हो गया और बोली-बाबूजी, इन्हें सम-झाइए कि में अब बुढ़ापे मे कहाँ जाऊँ ? इतनी उम्र तो इस घर में कटी, अब किसके द्वार पर जाऊँ ? जहाँ इतने नौकरों-चाकरो के लिए खाने को रोटियाँ हैं, क्या वहाँ मेरे लिए एक टुकड़ा भी नहीं ? बाबूजी, सच कहती हूँ, मैंने इन्हें अपना दूध पिलाकर पाला है: मालकिन के दूध न होता था, और अब यह मुझे घर से निकालने पर तुले हुए हैं। गुरुसेवकसिंह की इच्छा तो न थी कि चक्रधर से इस कलह के सम्बन्ध में कुछ कहें। लेकिन जब लौगी ने उन्हें पंच बनाने में सकोच न किया, तो वह भी खुल पड़े। बोले-महाशय, इससे यह पूछिए कि पात्र यह बुढ़िया हुई, इसके मरने के दिन आये, क्यों नहीं किसी तीर्थस्थान में जाकर अपने कलुधित जीवन के बचे हुए दिन काटती ? मैंने दादाजी से कहा था कि इसे वृन्दावन पहुँचा दीजिए, और वह तैयार भी हो गये थे, पर इसने सैकड़ों बहाने किये और वहाँ न गयी । आपसे तो अब कोई परदा नहीं है, इसके कारण मैने यहाँ रहना छोड़ दिया। इसके साथ इस घर में रहते हुए मुझे लजायाती है। इसे इसकी जरा भी परवाह नहीं कि जो लोग सुनते होंगे, तो दिल मे क्या कहते होंगे। हमे कही मुँह दिखाने की जगह नहीं रही। मनोरमा अव सयानी हुई। उसका विवाह करना है या नहीं। इसके घर में रहते हुए हम किस भले यादमी के द्वार पर ना सकते हैं। मगर इसे इन बातों की बिलकुल चिन्ता नही । वस मरते दम तक घर को स्वामिनी बनी रहना चाहती है। दादाजी भी सठिया गये हैं, उन्हें मानापमान की जरा भी फिक्र नहीं । इसने उनपर न जाने क्या मोहिनी डाल दी है कि इसके पीछे मुझमे लड़ने पर तैयार रहते हैं। श्राज मैं निश्चय करके पाया हूँ कि इसे घर के बाहर निकारकर ही छोडूंगा । या तो यह किसी दूसरे मकान में रहे, या किसी तीर्थ स्थान को प्रस्थान करे। लौगी-तो बच्चा सुनो, जब तक मालिक जीता है, लोंगी इसी घर में रहेगी भार इसी तरह रहेगी। जब वह न रहेगा, तो जो कुछ सिर पर पड़ेगी, झेल लॅगी । जो तुम चाहो कि लोगी गली गली ठोकरें खाये, तो यह न होगा ! मै लौडी नहीं हूँ कि घर से