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[कायाकल्प
 

बाहर जाकर रहूँ। तुम्हें यह कहते लजा नहीं श्राती? चार भाँवरें फिर जाने से ही व्याइ नहीं हो जाता । मैंने अपने मालिक की जितनी सेवा की है और करने को तैयार हूँ, उतनी कौन ब्याहता करेगी ? लाये तो हो बहू, कभी उठकर एक लुटिया पानी भी देती है ? खायी है कभी उसकी बनायो हुई कोई चीन ? नाम से कोई व्याहता नहीं होती, सेवा और प्रेम से होती है।

गुरुसेवक-यह तो मैं जानता हूँ कि तुझे बातें बहुत करनी अाती हैं, पर अपने मुंह से जो चाहे बने, मैं तुझे लौंडो ही समझता हूँ।

लौंगी-तुम्हारे समझने से क्या होता है, अभी तो मेरा मालिक जीता है। भगवान्ठ से अमर करें ! जब तक जीती हूँ, इसी तरह रहूँगी, चाहे तुम्हें अच्छा लगे या बुरा । निसने जवानी में बाँह पकड़ी, वह क्या अब छोड़ देगा? भगवान् को कौन मुँह दिखायेगा?

यह कहती हुई लौंगी घर में चली गयी। मनोरमा चुपचाप सिर मुकाये दोनों को चातें सुन रही थी। उसे लौंगी से सच्चा प्रेम था । मातृ स्नेह का जो कुछ सुख उसे मिला था, लौंगी ही से मिला था। उसकी माता तो उसे गोद में छोड़कर परलोक सिधारी थी। उस एहसान को वह कभी न भूल सकती थी। अब भी लौंगी उसपर प्राण देती थी। इसलिए गुरुसेवकसिंह की यह निर्दयता उसे बहुत बुरी मालूम होती थी।

लौंगी के जाते ही गुरुसेवकसिंह बड़े शान्त भाव से एक कुरसी पर बैठ गये और चक्रघर से बोले-महाशय, आपसे मिलने की इच्छा हो रही थी और इस समय मेरे यहाँ आने का एक कारण यह भी था। आपने श्रागरे को समस्या जिस बुद्धिमानी से हल की उसकी जितनी प्रशसा की जाय, कम है।

चक्रधर-वह तो मेरा कर्तव्य ही था ?

गुरुसेवक-इसीलिए कि श्रापके कर्तव्य का अादर्श बहुत ऊँचा है। १०० में ६६ श्रादमी तो ऐसे अवसर पर लड़ माना ही अपना कर्तव्य समझते हैं। मुश्किल से एक आदमी ऐसा निकलता है, जो धैर्य से काम ले । शान्ति के लिए आत्म-समर्पण करनेवाला तो लाख-दो-लाख में एक होता है। श्राप विलक्षण धैर्य और साहस के मनुष्य हैं । मैंने भी अपने इलाके में कुछ लड़कों का खेल-सा कर रखा है, वहाँ पठानों के कई बड़े-बड़े गाँव हैं, उन्हों से मिले हुए ठाकुरों के भी कई गाँव हैं। पहले पठानों और ठाकुरों में इतना मेल था कि शादी-गमी, तील त्योहार में एक दूसरे के साथ शरीक होते थे, लेकिन अब तो यह हाल है कि कोई त्योहार ऐसा नहीं जाता, जिसमें खून-खच्चर या कम से कम मार पीट न हो । श्राप अगर दो-एक दिन के लिए वहाँ चले तो श्रापस में बहुत कुछ सफाई हो जाय ! मुसलमानों ने अपने पत्रों में श्रापका जिक देखा है और शौक से श्रापका स्वागत करेंगे । अापके उपदेशों का बहुत कुछ असर पड़ सकता है।

चक्रधर-बातों में असर डालना तो ईश्वर की इच्छा के अधीन है। हॉ, मैं श्रापके साथ चलने को तैयार हूँ। मुझसे जो सेवा हो सकेगी, वह उठा न रखूगा | कन चलने का इरादा है ?