गुरुसेवक-चलता तो इसी गाडी से, लेकिन मै इस कुलटा को अबकी निकाल बाहर किये वगैर नहीं जाना चाहता। दादाजी ने रोक-टोक की, तो मनोरमा को लेता जाऊँगा और फिर इस घर में कदम न रखेगा। सोचिए तो, कितनी बड़ी बदनामी है।
चक्रधर बड़े संकट में पड़ गये। विरोध की कटुता को मिटाने के लिए मुस्कराते हुए बोले-मेरे और आपके सामाजिक विचारों में बड़ा अन्तर है। मैं बिल्कुल भ्रष्ट हो गया हूँ।
गुरुसेवक-क्या आप लौंगी का यहाँ रहना अनुचित नहीं समझते ?
चक्रधर-जी नहीं, खानदान की बदनामी अवश्य है; लेकिन मैं बदनामी के भय से अन्याय करने की सलाह नहीं दे सकता । क्षमा कीजिएगा, मैं बड़ी निर्भीकता से अपना मत प्रकट कर रहा हूँ।
गुरुसेवक-नहीं, नहीं: मैं बुरा नहीं मान रहा हूँ। (मुस्कराकर ) इतना उजड्ड नहीं हूँ कि किसी मित्र की सच्ची राय न सुन सकू। अगर श्राप मुझे समझा दें कि उसका यहाँ रहना उचित है, तो मैं श्रापका बहुत अनुगृहीत हूँगा । मैं खुद नहीं चाहता कि मेरे हाथों किसी को अकारण कष्ट पहुँचे ।
चक्रघर-जब किती पुरुष का एक स्त्री के साथ पति-पत्नी का-सा सम्बन्ध हो जाय, तो पुरुष का धर्म है कि जब तक स्त्री की ओर से कोई विरुद्ध प्राचरण न देखे, उस सम्बन्ध को निबाहे।
गुरुसेवक-चाहे स्त्री कितनी ही नीच जाति की हो ?
चक्रधर-हाँ, चाहे किसी भी जाति की हो ।
मनोरमा यह जवाब सुनकर गर्व से फूल उठी । वह आवेश में उठ खड़ी हुई और पुलकित होकर खिड़की के बाहर झॉकने लगी। गुरुसेवकसिंह वहाँ न होते, तो वह जरूर कह उठती-आप मेरे मुँह से बात ले गये।
एकाएक फिटन को श्रावाज आयी और ठाकुर साहब उतरकर अन्दर गये । गुरु- सेवकसिंह भी उनके पीछे-पीछे चले । वह डर रहे थे कि लौंगी अवसर पाकर कहीं उनके कान न भर दे।
जब वह चले गये, तो मनोरमा बोली-आपने मेरे मन की बात कही। बहुत सी बातों में मेरे विचार आपके विचारों से मिलते हैं।
चक्रधर-उन्हें बुरा तो जरूर लगा होगा!
मनोरमा-वह फिर वापसे बहस करने आते होंगे। अगर श्राज मौका न मिलेगा तो कल करेंगे । अबको वह शास्त्रों के प्रमाण पेश करेंगे, देख लीजिएगा!
चक्रधर-खैर, यह तो बताओ कि तुमने इन चार-पाँच दिनों में क्या काम किया !
मनोरमा-मैंने तो किताब तक नहीं खोली। वस, समाचार पढ़ती थी और वही चात सोचती थी । आप नहीं रहते, तो मेरा किसी काम में जो नहीं लगता। आप श्रन कमी बाहर न जाइएगा।