चक्रधर ने मनोरमा की पोर देखा, तो उसकी श्रॉखें सजल हो गयी थी। सोचने लगे-बालिका का हृदय कितना सरल, कितना उदार, कितना के मल और कितना भावमय है!
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जगदीशपुर की रानी देवप्रिया का जीवन केवल दो शब्दो में समाप्त हो जाता था-विनोद और विलास । इस वृद्धावस्था में भी उनकी विलास-वृत्ति अणुमात्र भी कम न हुई थी। हमारी कर्मेन्द्रियाँ भले ही जर्जर हो जाये, चेप्टाएँ तो वृद्ध नहीं होती ! कहते हैं, बुढ़ापा मरी हुई अभिलाषायो की समाधि है, या पुराने पापो का पश्चात्ताप, पर रानी देवप्रिया का बुढापा अतृप्त तृष्णा थी और अपूर्ण विलासाराधना । वह दान पुण्य बहुत करती थी; साल मे दो चार यज्ञ भी कर लिया करती थी, साधु-सन्तों पर उनकी असीम श्रद्धा थी और इस धर्मनिष्ठा में उनका ऐहिक स्वार्थ छिपा होता था। परलोक की उन्हें कभी भूलकर भी याद न श्राती थी। वह भूल गई थीं कि इस जीवन के बाद भी कुछ है। उनके दान और स्नान का मुख्य उद्देश्य था-शारीरिक विकारों से निवृत्ति, विलास में रत रहने की परम योग्यता । यदि वह किसी देवता को प्रसन्न कर सकतीं, तो कदाचित् उससे यही वरदान माँगती कि वह कभी बूढ़ी न हो। इस पूजा और व्रत के सिवा वह इस महान् उद्देश्य को पूरा करने के लिए भाँति भाँति के रसों और पुष्टिकारक औषधियों का सेवन करती रहती थी। झुर्रियाँ मिटाने और रग को चमकाने के लिए भी कितने ही प्रकार के पाउडरों, उपटनों और तेलों से काम लिया जाता था । वृद्धावस्था उनके लिए नरक से कम भयङ्कर न थी। चिन्ता को तो वह अपने पास न फटकने देती थी। रियासत उनके भोग विलास का साधन मात्र यी। प्रजा को क्या कष्ट होता है, उनपर कैसे-कैसे अत्याचार होते हैं, सूखे झूरे की विपत्ति क्योकर उनका सर्वनाश कर देती है, इन बातों की ओर कभी उनका ध्यान न जाता था। उन्हें जिस समय जितने धन की जरूरत हो, उतना तुरन्त देना मैनेजर का काम था । वह ऋण लेकर दे, चोरी करे, या प्रजा का गला काटे, इससे उन्हें कोई प्रयोजन न था।
यों तो रानी साहब को हरएक प्रकार के विनोद से समान प्रेम था। चाहे वह थिएटर हो, या पहलवानों का दगल, या अँगरेजी नाच, पर उनके जीवन की सबसे अानन्दमय घड़ियाँ वे होती थीं, जब वह युवकों और युवतियों के साथ प्रेम-क्रीड़ा करती थीं। इस मण्डली में बैठकर उन्हें श्रात्म प्रवचना का सबसे अच्छा अवसर मिलता था । वह भूल जाती थीं कि मेरा यौवन काल बीत चुका है। अपने बुझे हुए यौवन दीपक को युवा की प्रज्ज्वलित स्फूति से जलाना चाहती थीं, किन्तु इस धुन में वह कितने ही अन्य विलासान्ध प्राणियों की भाँति नीचो को मुंह न लगाती थीं। काशी प्रानेवाले राजकुमारों और रानकुमारियो ही से उनका सहवास रहता था। आनेवालों की कमी न यो । एक न-एक हमेशा ही अाता रहता था । रानी की अतिथि-शाला हमेशा श्राबाद रहती थी। उन्हें युवकों की आँखों में खुब जने की सनक-सी थी। वह चाहती थीं कि