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[कायाकल्प
 

अधरों पर एक मृदुल हास्य की झलक दिखाई दी। उनके उठने की अाहट पाकर लौंडी कमरे में आकर खड़ी हो गयी । यह उनकी नाइन थी। गुजराती नाम था।

रानी-समय बहुत थोड़ा है, जल्दी कर ।

गुजराती-रानियों को कैसी जल्दी | जिसे मिलना होगा, वह स्वय पायेगा और बैठा रहेगा।

रानी-महीं, आज ऐसा ही अवसर है।

नाइन बड़ी निपुण थी, तुरन्त शृगारदान खोलकर बैठ गयी और रानी का शृगार करने लगी, मानों कोई चित्रकार तसवीर में रंग भर रहा हो । बाघ घटा भी न गुजरा था कि उसने रानी के केश गुथकर नागिन की सी लटें डाल दी । कपोलों पर एक ऐसा रंग भरा कि झुरियाँ गायब हो गयी और मुख पर मनोहर आभा झलकने लगी। ऐसा मालूम होने लगा, मानो कोई सुन्दरी युवती सोकर उठी है। वही अलसाया हुश्रा अग था, वही मतवाली आँखें । रानी ने आईने को श्रोर देखा और प्रसन्न होकर बोलीं--- गुजराती, तेरे हाथ में कोई जादू है। मै तुझे अपने साथ स्वर्ग में ले चलूँगी । वहाँ तो देवता लोग होंगे, तेरी मदद की और भी जरूरत होगी।

गुजराती-आप कमी इनाम तो देती नहीं। बस, बखान करके रह जाती है !

रानी-अच्छा, बता क्या लेगी ?

गुजराती-मै लुंगी, तो वही लूँगी, जो कई बार माँग चुकी हूँ। रुपए-पैसे लेकर मुझे क्या करना है!

यह एक दीवारगीर पर रखी हुई मदन की छोटो-सी मूर्ति थी। चतुर मूर्तिकार ने इस पर कुछ ऐसी कारीगरी की थी जिससे कि दिन के साथ उसका भी रंग बदलता रहता था।

गुजराती-अच्छा, तो न दीजिए, लेकिन फिर मुझसे कभी न पूछिएगा कि क्या लेगी?

रानी-क्या मुझसे नाराज हो गयी ? (चौंककर) वह रोशनी दिखायी दी | कुवर साहब श्रा गये ! मैं झूला-घर में जाती हूँ। वहीं लाना।

यह कहकर रानी ने फिर वही शीशी निकाली और दुगुनी मात्रा में दवा पीकर झूला घर की ओर चलीं। यह एक विशाल भवन था, बहुत ऊँचा और इतना लम्बा-चौड़ा कि झूले पर बैठकर खूब पैग ली जा सकती थी। रेशम को डोरियों में पड़ा हुआ एक पटरा छत से लटक रहा था पर चित्रकारो ने ऐसी कारीगरी की थी कि मालूम होता था, किसी वृक्ष को डाल में पड़ा हुआ है। पौधों, झाड़ियों और लताओं ने उसे यमुना तट का कुब्ज-सा बना दिया था। कई हिरन और मोर इधर-उधर विचरा करते थे। रात का उस भवन में पहुँचकर सहसा यह ज्ञान न होता था कि यह कोई भवन है। पानी का रिमझिम बरसना, ऊपर से हल्की-हल्की फुहारों का पड़ना, हौल में जल यक्षियों का क्रीड़ा करना~यह सब किसी उपवन की शोभा दरसाता था।