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पृष्ठ:कायाकल्प.djvu/६०

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कायाकल्प]
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पृथ्वी का क्षेत्र उन्हें छोटा मालूम होगा। वह पृथ्वी से अन्य पिण्डों में उतनी ही सुगमता से आ-जा सकेंगे, जैसे एक देश से दूसरे देश में।

मैं—आपको अपने पूर्व-जन्म का ज्ञान योग द्वारा ही हुआ होगा?

महात्मा—नहीं, मैं पहले ही कह चुका कि मै योगी नहीं, प्रयोगी हूँ। तुमने तो विज्ञान पढ़ा है, क्या तुम्हें मालूम नहीं कि सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड विद्युत् का अपार सागर है। जब हम विज्ञान द्वारा मन के गुप्त रहस्य जान सकते हैं, तो क्या अपने पूर्व संस्कार न जान सकेंगे। केवल स्मृति को जगा देनेही से पूर्व जन्म का ज्ञान हो जाता है।

मैं—मुझे भी वह ज्ञान प्राप्त हो सकता है?

महात्मा—मुझे हो सकता है, तो आपको क्यों न हो सकेगा। अभी तो आप थके हुए हैं। कुछ भोजन करके स्वस्थ हो जाइए, तो मैं आपको अपनी प्रयोगशाला की सैर कराऊँ।

मैं—क्या आपकी प्रयोगशाला भी यहीं है?

महात्मा—हाँ, इसी कमरे से मिली हुई है। क्या आप भोजन करना चाहते हैं?

मैं—उसके लिए आप कोई चिन्ता न करें। आपका जूठन मैं भी खा लूँगा।

महात्मा (हँसकर) अभी नहीं खा सकते। अभी तुम्हारी पाचन-शक्ति इतनी बलवान नहीं है। तुम जिन पदार्थों को खाद्य समझते हो, उन्हें मैंने बरसों से नहीं खाया। मेरे लिए उदर को स्थूल वस्तुओं से भरना वैसा ही अवैज्ञानिक है, जैसे इस वायुयान के दिनों में बैलगाड़ी पर चलना। भोजन का उद्देश्य केवल संचालन-शक्ति को उत्पन्न करना है। जब वह शक्ति हमें भोजन करने की अपेक्षा कही आसानी से मिल सकती है, तो उदर को क्यों अनावश्यक वस्तुओं से भरें। वास्तव में आनेवाली जाति उदर-विहीन होगी।

यह कहकर उन्होंने मुझे थोड़े-से फल खिलाये, जिनका स्वाद आज तक याद करता हूँ। भोजन करते ही मेरी आँखें खुल सी गयीं। ऐसे फल न जाने किस बाग में पैदा होते होंगे। यहाँ की विद्युन्मय वायु ने पहले ही आश्चर्यजनक स्फूर्ति उत्पन्न कर दी थी। यह भोजन करके तो मुझे ऐसा मालूम होने लगा कि मैं आकाश में उड़ सकता हूँ। वह चढ़ाई, जिसे मैं असाध्य समझ रहा था, अब तुच्छ मालूम होती थी।

अब महात्माजी मुझे अपनी प्रयोगशाला की सैर कराने चले। यह एक विशाल गुफा थी, जिसके विस्तार का अनुमान करना कठिन था, उसकी चौडाई ५०० हाथ से कम न रही होगी। लम्बाई उसकी चौगुनी थी। ऊँची इतनी कि हमारे ऊँचे-से-ऊँचे मीनार भी उसके पेट में समा सकते थे। बौद्ध मूर्तिकारों की अद्भुत चित्रकला यहाँ भी विद्यमान थी। यह पुराने समय का कोई विहार था। महात्माजी ने उसे प्रयोगशाला बना लिया था।

प्रयोगशाला में कदम रखते ही मैं एक दूसरी ही दुनिया में पहुँच गया। जेनेवा नगर आँखों के सामने था और एक भवन में राष्ट्रों के मन्त्री बैठे हुए किसी राजनीतिक