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पृष्ठ:कायाकल्प.djvu/६१

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[कायाकल्प
 


विषय पर बहस कर रहे थे। उनकी आँखों के इशारे, होठों का हिलना और हाथों का उठना साफ दिखाई देता था। उनके मुख से निकला हुआ एक एक शब्द साफ-साफ कानों में आता या। एक क्षण के लिए मैं धोखे में आ गया कि जेनेवा ही में बैठा हूँ। जरा और आगे बढा तो सगीत की ध्वनि कानों में पायी। मैंने यूरप में यह आवाज सुनी थी। पहचान गया, पैड्रोस्को की आवाज थी। मेरे आश्चर्य की सीमा न रही। जिन आविष्कारों का बड़े बड़े विद्वानों को प्राभास मात्र था, वे सब यहाँ अपने समुन्नत, पूर्ण रूप में दिखायी दे रहे थे। इस निर्जन स्थान में, आवादी से कोसों दूर, इतनी ऊँचाई पर कैसे उन प्रयोगों में सफलता हुई, ईश्वर ही जान सकते हैं। महात्मा लोग तो योग की क्रियाओं ही में कुशल होते हैं। अध्यात्म उनका क्षेत्र है। विज्ञान पर उन्होंने कैसे ग्राधिपत्य जमाया। महात्माजी मेरी ओर देखकर मुस्कराये और बोले-विज्ञान अन्तःकरण को भी गुप्त नहीं छोड़ता। तुम्हें इन बातों से आश्चर्य हो रहा है, पर यथार्थ यह है कि विज्ञान ने योग को बहुत सरल कर दिया है। वह वहिर्जगत् से अब धीरे धीरे अन्तर्जगत् में प्रवेश कर रहा है। मनोयोग की जटिल क्रियाओं द्वारा जो सिद्धि बरसों में प्राप्त होती थी, वह अब क्षणों में हो जाती है। कदाचित् वह समय दूर नहीं कि हम विज्ञान द्वारा मोक्ष भी प्राप्त कर सकेंगे।

मैंने पूछा-क्या पूर्व-समय का ज्ञान भी किसी प्रयोग द्वारा हो सकता है?

महात्मा--हो सकता है, लेकिन उससे किसी उपकार की आशा नहीं। विज्ञान अगर प्राणियों का उपकार न करे, तो उसका मिट जाना ही अच्छा। केवल निज्ञासा को शान्त करने, विलास में योग देने, या यथार्थ की सहायता करने के लिए योग करना उसका दुरुपयोग करना है। मैं चाहूँ तो अभी एक क्षण में यूरप के बड़े से बड़े नगर को नष्ट-भ्रष्ट कर दें, लेकिन विज्ञान प्राण-रक्षा के लिए है, वध करने के लिए नहीं।

मुझे निराशा तो हुई, पर आग्रह न कर सका। शाम तक प्रयोगशाला के यन्त्रों को देखता रहा। किन्तु उनमें अब मन न लगता था। यही धुन सवार थी कि क्योंकर यह दुस्तर कार्य सिद्ध करू। आखिर, उन्हें किसी तरह पसीजते न देखकर मैंने उसी हिकमत से काम लिया, जो निरुपायों का आधार है। बोला-भगवन्, आपने वह सब कर दिखाया, जिसका ससार के विज्ञानवेत्ता अभी केवल स्वप्न देख रहे हैं।

महात्माजी पर इन शब्दों का वही असर पड़ा, जो मैं चाहता था। यद्यपि मैंने यथार्थ ही कहा था, लेकिन कभी-कभी यथार्थ भी खुशामद का काम कर जाता है। प्रसन्न होकर बोले-मैं गर्व तो नहीं करता, पर ऐसी प्रयोगशाला संसार में दूसरी नहीं है।

मैं-यूरपवालों को खबर मिल जाय, तो आपको आराम से बैठना मुश्किल हो जाय।

महात्मा-मैंने कितनी ही नयी-नयी वार्ते खोज निकाली, पर उनका गौरव प्रान दूसरों को प्राप्त है। लेकिन इसकी क्या चिन्ता। मैं विज्ञान का उपासक हूँ, अपनी ख्याति और गौरव का नहीं।

मापने इस देश का मुख उज्ज्वल कर दिया।