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[कायाकल्प
 

जगह तलाश कर रही है। चक्रधर उसे देखते ही लपककर समीप आ पहुँचे और कुछ कहना ही चाहते थे कि रोहिणी खुद बोली—क्या मुझे पकड़ने आये हो? अपना भला चाहते हो, तो लौट जाओ, नहीं तो अच्छा न होगा। मैं उन पापियों का मुँह न देखूँगी।

चक्रधर—आप इस अंधेरे में कहाँ जायँगी? हाथ को तो हाथ सूझता नहीं।

रोहिणी—अँधेरे में डर उसे लगता है, जिसका कोई अवलम्ब हो। जिसका संसार में कोई नहीं, उसे किसका भय? गला काटनेवाले अपने होते हैं, पराये गला नहीं काटते। जाकर कह देना, अब आराम से टाँगें फैलाकर सोइए, अब तो काँटा निकल गया।

चक्रधर—आप कुँवर साहब के साथ बड़ा अन्याय कर रही हैं। बेचारे लज्जा और शोक से खड़े रो रहे हैं।

रोहिणी—क्यों बातें बनाते हो? वह रोयेंगे, और मेरे लिए? मैं जिस दिन मर जाऊँगी, उस दिन घी के चिराग जलेंगे। संसार में ऐसे अभागे प्राणी भी होते हैं। अपने मा बाप को क्या कहूँ। ईश्वर उन्हें नरक में भी चैन न दे। सोचे थे, बेटी रानी हो जायगी, तो हम राज करेंगे। यहाँ जिस दिन डोली से उतरी, उसी दिन से सिर पर विपत्ति सवार हुई। पुरुष रोगी हो, बूढ़ा हो, दरिद्र हो, पर नीच न हो। ऐसा नीच और निर्दयी आदमी संसार में न होगा। नीचों के साथ नीच बनना ही पड़ता है।

चक्रधर—आपके यहाँ खड़े होने से कुँवर साहब का कितना अपमान हो रहा है, इसकी आपको जरा भी फिक्र नहीं?

रोहिणी—तुम्हीं ने तो मुझे रोक रक्खा है।

चक्रधर—आखिर आप कहाँ जा रही हैं?

रोहिणी—तुम पूछनेवाले कौन होते हो? मेरा जहाँ जी चाहेगा, जाऊँगी। उनके पाँव में मेंहदी नहीं रची हुई थी। उन्होंने मुझे घर से निकलते भी देखा था। क्या इसका मतलब यह नहीं है कि अच्छा हुआ, सिर से बला टली। दुत्कार सहकर जीने से मर जाना अच्छा है।

चक्रधर—आपको मेरे साथ चलना होगा।

रोहिणी—तुम्हें यह कहने का क्या अधिकार है।

चक्रधर—जो अधिकार सचेत को अचेत पर, सजान को अजान पर होता है, वही अधिकार मुझे आपके ऊपर है। अन्धे को कुएँ में गिरने से बचाना हरएक प्राणी का धर्म है।

रोहिणी—मैं न अचेत हूँ, न अजान, न अन्धी। स्त्री होने ही से बावली नहीं हो गयी हूँ। जिस घर में मेरा पहनना-ओढ़ना, हँसना-बोलना देख देखकर दूसरों की छाती फटती है, जहाँ कोई अपनी बात तक नहीं पूछता, जहाँ तरह-तरह के आक्षेप लगाये जाते हैं, उस घर में कदम न रखूँगी।

यह कहकर रोहिणी आगे बढ़ी कि चक्रधर ने सामने खड़े होकर कहा—आप आगे नहीं जा सकतीं।