पृष्ठ:कायाकल्प.djvu/७३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
कायाकल्प]
८१
 


रोहिणी—जबरदस्ती रोकोगे?

चक्रधर—हाँ, जबरदस्ती रोकूँगा।

रोहिणी—सामने से हट जाओ।

चक्रधर—मै आपको कदम भी आगे न रखने दूँगा। सोचिए, आप अपनी अन्य बहनों को किस कुमार्ग पर ले जा रही हैं। जब वे देखेंगी कि बड़े-बड़े घरो की स्त्रियाँ भी रूठकर घर से निकल खड़ी होती हैं, तो उन्हें भी जरा-जरा-सी बात पर ऐसा ही साहस होगा या नहीं? नीति के विरुद्ध कोई काम करने का फल अपने ही तक नहीं रहता, दूसरों पर उसका और भी बुरा असर पड़ता है।

रोहिणी—मैं चुपके से चली जाती थी, तुम्हीं तो ढिंढोरा पीट रहे हो।

चक्रधर—जिस तरह रण से भागते हुए सिपाही को देखकर लोगों को उससे घृणा होती है—यहाँ तक कि उसका वध कर डालना भी पाप नहीं समझा जाता, उसी तरह कुल में कलंक लगानेवाली स्त्रियों से भी सबसे घृणा हो जाती है और कोई उनकी सूरत तक नहीं देखना चाहता। हम चाहते हैं कि सिपाही गोली और आग के सामने अटल खड़ा रहे। उसी तरह हम यह भी चाहते हैं कि स्त्री सब कुछ झेलकर अपनी मर्यादा का पालन करती रहे। हमारा मुँह हमारी देवियो से उज्ज्वल है और जिस दिन हमारी देवियाँ इस भाँति मर्यादा की हत्या करने लगेगी, उसी दिन हमारा सर्वनाश हो जायगा।

रोहिणी के रुँधे हुए कण्ठ से बोली—तो क्या चाहते हो कि मैं फिर उसी आग में जलूँ?

चक्रधर—हाँ, यही चाहता हूँ। रणक्षेत्र मे फूलों की वर्षा नहीं होती। मर्यादा की रक्षा करना उससे कहीं कठिन है।

रोहिणी—लोग हँसेंगे कि घर से निकली तो थी बड़े दिमाग से, आखिर झख मारकर लौट आयी।

चक्रधर—ऐसा वही कहेंगे, जो नीच और दुर्जन हैं। समझदार लोग तो आपकी सराहना ही करेंगे। रोहिणी ने कई मिनट तक आगा-पीछा करने के बाद कहा—अच्छा चलिए आप भी क्या कहेंगे। कोई बुरा कहे या भला। हाँ, कुँवर साहब को इतना जरूर समझा दीजिएगा कि जिन महरानी को आज वह घर की लक्ष्मी समझे हुए हैं, वह एक दिन उनको बड़ा धोखा देगी। मैं कितनी ही आपे से बाहर हो जाऊँ; पर अपना ही प्राण दूँगी। वह बिगड़ेंगी, तो प्राण लेकर छोड़ेगी। आप किसी मौके से जरूर समझा दीजिएगा।

वह कहकर रोहिणी घर की ओर लौट पड़ी। लेकिन चक्रधर का उसके ऊपर कहाँ तक असर पड़ा और कहाँ तक स्वयम् अपनी सहज बुद्धि का, इसका अनुमान कौन कर सकता है। वह लौटते वक्त लज्जा से सिर नहीं गढ़ाये हुए थी। गर्व से उसकी गर्दन उठी हुई थी। उसने अपनी टेक को मर्यादा की वेदी पर बलिदान कर दिया था; पर