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[कायाकल्प
 

इसके साथ ही उन व्यंग्य वाक्यों की रचना भी करती थी, जिनसे वह कुँवर साहब का स्वागत करना चाहती थी।

जब दोनों आदमी घर पहुँचे, तो विशालसिंह अभी तक वहाँ मूर्तिवत् खड़े थे, महरी भी खड़ी थी। भक्त जन अपना-अपना काम छोड़कर लालटेन की ओर ताक रहे थे। सन्नाटा छाया हुआ था।

रोहिणी ने देहलीज में कदम रखा, मगर ठाकुर साहब ने उसकी ओर आँख उठाकर भी न देखा। जब वह अन्दर चली गयी, तो उन्होंने चक्रधर का हाथ पकड़ लिया और बोले—मैं तो समझता था, किसी तरह न आयेगी, मगर आप खींच ही लाये। क्या बहुत बिगड़ती थी?

चक्रधर ने कहा—आपको कुछ नहीं कहा। मुझे तो बहुत समझदार मालूम होती हैं। हाँ, मिजाज नाजुक है, बात बर्दाश्त नहीं कर सकतीं।

विशालसिंह—मैं यहाँ से टला तो नहीं, लेकिन सच पूछिए तो ज्यादती मेरी ही थी। मेरा क्रोध बहुत बुरा है। अगर आप न पहुँच जाते, तो बड़ी मुश्किल पड़ती। जान पर खेल जानेवाली स्त्री है। आपका यह एहसान कभी न भूलूँगा। देखिए तो, सामने कुछ रोशनी सी मालूम हो रही है। बैंड भी बज रहा है। क्या माजरा है?

चक्रधर—हाँ मशालें और लालटेनें हैं। बहुत-से आदमी भी साथ हैं।

और लोग भी आँगन में उतर आये और सामने देखने लगे। सैकड़ों आदमी कतार बाँधे मशालों और लालटेनों के साथ चले आ रहे थे, आगे आगे दो अश्वारोही भी नजर आते थे। बैंड की मनोहर ध्वनि आ रही थी। सब खड़े-खड़े देख रहे थे, पर किसी को समझ में न आता था कि माजरा क्या है।


११

सभी लोग बड़े कुतूहल से आनेवालों को देख रहे थे। कोई दस-बारह मिनट में वह विशालसिंह के घर के सामने आ पहुँचे। आगे आगे दो घोड़ों पर मुंशी वज्रधर और ठाकुर हरिसेवकसिंह थे। पीछे कोई पचीस-तीस आदमी साफ सुथरे कपड़े पहने चले आते थे। दोनों तरफ कई झण्डी-वरदार थे, जिनकी झण्डियाँ हवा में लहरा रही थीं। सबसे पीछे बाजेवाले थे! मकान के सामने पहुँचते ही दोनों सवार घोड़ों से उतर पड़े और हाथ बाँधे हुए कुँवर साहब के सामने आकर खड़े हो गये। मुंशीजी की सज धज निराली थी। सिर पर एक शमला था, देह पर एक नीचा आबा। ठाकुर साहब भी हिन्दुस्तानी लिबास में थे। मुंशीजी खुशी से मुस्कराते थे, पर ठाकुर साहब का मुख मलिन था।

ठाकुर साहब बोले—दीनबन्धु, हम सब आपके सेवक आपकी सेवा में यह शुभसूचना देने के लिए हाजिर हुए हैं कि महारानी ने राज्य से विरक्त होकर तीर्थ यात्रा को प्रस्थान किया है और अब हमें श्रीमान् की छत्र-छाया के नीचे आश्रय लेने का वह स्वर्णावसर प्राप्त हुआ है, जिसके लिए हम सदैव ईश्वर से प्रार्थना करते रहते थे। यह हमारा परम सौभाग्य है कि आज से श्रीमान् हमारे भाग्य विधाता हुए। यह पत्र है,