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पृष्ठ:कायाकल्प.djvu/७५

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कायाकल्प]
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जो महारानीजी ने श्रीमान् के नाम लिख रखा था।

यह कहकर ठाकुर साहब ने रानी का पत्र विशालसिंह के हाथ में रख दिया। कुँवर साहब ने एक ही निगाह में उसे आद्योपांत पढ़ लिया और उनके मुख पर मन्द हास्य की आभा झलकने लगी। पत्र जेब में रखते हुए बोले—यद्यपि महारानी की तीर्थ यात्रा का समाचार जानकर मुझे अत्यन्त खेद हो रहा है। लेकिन इस बात का सच्चा आनन्द भी है कि उन्होंने निवृत्ति-मार्ग पर पग रखा; क्योंकि ज्ञान ही से मुक्ति प्राप्त होती है। मेरी ईश्वर से यही विनय है कि उसने मेरी गरदन पर जो कर्तव्य-भार रखा है, उसे सँभालने की मुझे शक्ति दे और प्रजा के प्रति मेरा जो धर्म है, उसके पालन करने के भी शक्ति प्रदान करे। आप लोगों को मै विश्वास दिलाता हूँ कि मै यथासाध्य अपन कर्तव्य पालन करने में ऊँचे आदर्शों को सामने रखूँगा, लेकिन मेरी सफलता बहुत कुछ आप ही लोगो की सहानुभूति और सहकारिता पर निर्भर है, और मुझे आशा है कि आप मेरी सहायता करने में किसी प्रकार की कोताही न करेंगे। मैं इस समय यह भी जता देना अपना कर्तव्य समझता हूँ कि मैं अत्याचार का घोर शत्रु हूँ और ऐसे महापुरुषों को, जो प्रजा पर अत्याचार करने के अभ्यस्त हो रहे हैं, मुझसे जरा भी नरमी की आशा न रखनी चाहिए।

इस कथन में शिष्टता की मात्रा अधिक और नीति की बहुत कम थी, फिर भी सभी राज्य-कर्मचारियों को यह बातें अप्रिय जान पड़ीं। सबके कान खड़े हो गये और हरि सेवक को तो ऐसा मालूम हुआ कि यह निशाना मुझी पर है। उनके प्राण सूख गये सभी आपस में काना-फूसी करने लगे।

कुँवर साहब ने लोगों को ले जाकर फर्श पर बैठाया और खुद मसनद लगाकर बैठे। नजराने की निरर्थक रस्म अदा होने लगी। बैंड ने बधाई देनी शुरू की। चक्रधर ने पान और इलायची से सबका सत्कार किया। कुँवर साहब का जी बार-बार चाहता था कि घर में जाकर यह सुख-संवाद सुनाऊँ; पर मौका न देखकर जब्त किये हुए थे मुंशी वज्रधर अब तक खामोश बैठे थे। ठाकुर हरसेवक को यह खुशखबरी सुनाने का मौका देकर उन्होंने अपने ऊपर कुछ कम अत्याचार न किया था। अब उनसे चुप न रहा गया। बोले—हुजूर, आज सबसे पहले मुझी को यह हाल मालूम हुआ।

हरिसेवक ने इसका खण्डन किया—मै भी तो आपके साथ ही पहुँच गया था।

वज्रधर—आप मुझसे जरा देर बाद पहुँचे। मेरी आदत है कि बहुत सबेरे उठता हूँ। देर तक सोता, तो एक दिन भी तहसीलदारी न निभती। बड़ी हुकूमत की जगह है, हुजूर! वेतन तो कुछ ऐसा ज्यादा न था; पर हुजूर, अपने इलाके का बादशाह था। खैर, ड्योढ़ी पर पहुँचा तो सन्नाटा छाया हुआ था। न दरबान का पता, न सिपाही का। घबराया कि माजरा क्या है! बेधड़क अन्दर चला गया। मुझे देखते ही गुजराती रोती हुई दौड़ी और तुरन्त रानी साहब का खत लाकर मेरे हाथ में रख दिया। रानी जी ने उससे शायद यह खत मेरे ही हाथ में देने को कहा था।