दीवान—महाराज, रियासतों में पुरानी प्रथा है। सब असामी खुशी से देंगे, किसी को आपत्ति न होगी।
मुन्शी—गाते-बजाते आयेंगे और दे जायँगे।
राजा—मैं किस मुँह से उनसे रुपए लूँ? गद्दी पर बैठ रहा हूँ, मेरे उत्सव के लिए असामी क्यों इतना जब सहें?
दीवान—महाराज, यह तो परस्पर का व्यवहार है। रियासत भी तो अवसर पड़ने पर हर तरह से असामियों की सहायता करती है। शादी गमी में रियासत से लकड़ियाँ मिलती हैं, सरकारी चरावर में लोगों की गौएँ चरती हैं। और भी कितनी बातें हैं। जब रियासत को अपना नुकसान उठाकर प्रजा की मदद करनी पड़ती है, तब प्रजा राजा की शादी-गमी में क्यों न शरीक हो।
राजा—अधिकांश असामी गरीब हैं, उन्हें कष्ट होगा।
मुंशी—हुजूर असामियों को जितना गरीब समझते हैं, उतने गरीब वे नहीं हैं। एक-एक आदमी लड़के-लड़कियों की शादी में हजारों उड़ा देता है। दस रुपए की रकम इतनी ज्यादा नहीं कि किसी को अखर सके। मेरा तो पुराना तजरबा है। तहसीलदार था, तो हाकिमों को डाली देने के लिए बात की बात में हजारों रुपए वसूल कर लेता था।
राजा—मैं असामियों को किसी भी हालत में कष्ट नहीं देना चाहता। इससे तो कहीं अच्छी बात होगी कि उत्सव को कुछ दिनों के लिए स्थगित कर दिया जाय, लेकिन अगर आप लोगों का विचार है कि किसी को कष्ट न होगा और लोग खुशी से मदद देंगे, तो आप अपनी जिम्मेदारी पर वह काम कर सकते हैं। मेरे कानों तक कोई शिकायत न आये।
दीवान—हुजूर, शिकायत तो थोड़ी बहुत हर हालत में होती ही है। इससे बचना असम्भव है। अगर कोई शिकायत न होगी, तो यही होगी कि महाराज साहब की गद्दी हो गयी और हमारा मुँह भी न मीठा हुआ, कोई जलसा तक न हुआ। अगर किसी से कुछ न लीजिए, केवल तिलकोत्सव में शरीक होने के लिए बुलाइए, तब भी लोग शिकायत से बाज न आयेंगे। नेवते को तलबी समझेंगे और रोयेंगे कि हम अपने काम-धन्धे छोड़कर कैसे जायें। रोना तो उनकी घुट्टी में पड़ गया है। रियासत का कोई नौकर जा पड़ता है, तो उसे उपले तक नहीं मिलते, और कोई धूर्त जटा बढ़ाकर पहुँच जाता है, तो महीनों उसका आदर सत्कार होता है। राजा और प्रजा का सम्बन्ध ही ऐसा है। प्रजा-हित के लिए भी कोई काम कीजिए, तो उसमें भी लोगों को शंका होती है। हल पीछे १०) बैठा देने से कोई ५ लाख रुपये हाथ आयँगे। रही रसद, यह तो बेगार में मिलती ही है। आपकी अनुमति की देर है।
मुंशी—जब सरकार ने यह कह दिया कि आप अपनी जिम्मेदारी पर वसूल कर सकते हैं, तो अनुमति का क्या प्रश्न? इसका मतलब तो इतना गहरा नहीं है कि बहुत डूबने