पृष्ठ:कार्ल मार्क्स, फ्रेडरिक एंगेल्स.djvu/२४

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लेकिन इसके विपरीत पूंजी का साधारण सूत्र है मुद्रा - माल - मुद्रा , अर्थात् ( मुनाफ़े पर) बेचने के लिए खरीदना। जो मुद्रा आदान-प्रदान के लिए निकाली जाती है, उसकी असली कीमत के ऊपर जो बढ़ती होती है, उसे मार्क्स ने अतिरिक्त मूल्य का नाम दिया है। पूंजीवादी आदान- मुद्रा की इस "बढ़ती" को सभी लोग जानते हैं। वास्तव में यह “बढ़ती" ही एक विशेष , इतिहास द्वारा निश्चित उत्पादन के सामाजिक सम्बन्ध के रूप में मुद्रा को पूंजी में परिवर्तित करती है। मालों के आदान-प्रदान से अतिरिक्त मूल्य नहीं उत्पन्न हो सकता, क्योंकि इसमें केवल बराबर की चीज़ों का विनिमय होता है; क़ीमतों के बढ़ने से भी उसकी उत्पत्ति नहीं हो सकती क्योंकि ख़रीदने और बेचनेवालों का परस्पर हानि-लाभ बराबर हो जायेगा। और यहां पर हमारा विषय इक्की-दुक्की घटनाओं से सम्बन्धित न होकर सामूहिक रूप से औसत सामाजिक घटना- क्रम से है। अतिरिक्त मूल्य पाने के लिए थैलीशाहों को बाजार में ऐसा माल मिलना ही चाहिए जिसके उपयोग-मूल्य में यह विशेष गुण है कि वह मूल्य का उद्गम है"। यह ऐसा माल होता है जिसका प्रत्यक्ष उपयोग-क्रम मूल्य का भी निर्माण-क्रम है। ऐसे माल का अस्तित्व है। वह है मनुष्य की श्रम-शक्ति। उसका उपयोग श्रम है और श्रम से मूल्य बनता है। पैसेवाला श्रम-शक्ति को उसके मूल्य पर खरीद लेता है। हर माल के मूल्य की तरह श्रम-शक्ति का मूल्य भी उसके उत्पादन के लिए सामाजिक रूप से आवश्यक श्रम के समय द्वारा (अर्थात् मजदूर और उसके परिवार के भरण-पोषण के लिए आवश्यक धन द्वारा निश्चित होता है। श्रम-शक्ति को ख़रीद लेने के बाद पैसेवाले का हक़ होता है कि वह उसका उपयोग करे यानी उसे दिनभर - मान लीजिये बारह घंटे- काम में लगाये रहे। इसी बीच छः घंटों में ही (“आवश्यक" श्रम समय में ) मज़दूर इतना उत्पादन कर लेता है जिससे उसके भरण-पोषण का ख़र्च निकल सके। इसके बाद के छः घंटों में (“अतिरिक्त" श्रम समय में) वह "अतिरिक्त" माल या अतिरिक्त मूल्य पैदा करता है जिसके लिए पूंजीपति उसे कुछ नहीं देता। इसलिए उत्पादन-क्रम के विचार से हमें पूंजी के दो भागों में भेद करना चाहिये : पहली , स्थिर पूंजी ( कौंस्टेंट

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