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पृष्ठ:कार्ल मार्क्स, फ्रेडरिक एंगेल्स.djvu/२५

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कैपिटल ) जो उत्पादन के साधनों पर ( मशीनों, औज़ारों, कच्चे माल वगैरा पर ) ख़र्च की जाती है, जिसका मूल्य (एकबारगी अथवा क्रमशः) बिना किसी परिवर्तन के तैयार माल में बदल दिया जाता है ; दूसरी , अस्थिर पूंजी ( वेरियेबल कैपिटल ) जो श्रम-शक्ति पर खर्च की जाती है। इस अस्थिर पूंजी का मूल्य एक सा नहीं रहता वरन् श्रम करने के साथ बढ़ता है और अतिरिक्त मूल्य का निर्माण करता है। इसलिए पूंजी द्वारा श्रम-शक्ति के शोषण का हिसाब करने के लिए हमें अतिरिक्त मूल्य की तुलना संपूर्ण पूंजी से नहीं वरन् केवल अस्थिर पूंजी से करनी चाहिए। इस प्रकार ऊपर के उदाहरण में, अतिरिक्त मूल्य की दर - जैसा कि मार्क्स ने इस संबंध का नामकरण किया है - छः छः के अनुपात में, अर्थात् शतप्रतिशत होगी।

पूंजी की उत्पत्ति के लिए ऐतिहासिक आवश्यकताएं इस प्रकार थीं : पहले , साधारण रूप से मालों के उत्पादन के अपेक्षाकृत उच्च विकास की परिस्थितियां और व्यक्तियों के हाथों में विशेष मात्रा में धन का इकट्ठा हो जाना ; दूसरे ऐसे मजदूरों का अस्तित्व जो दो अर्थों में "स्वाधीन" - अपनी श्रम-शक्ति के बेचने में किसी तरह की बाधा , या नियंत्रण से स्वाधीन और धरती या साधारण रूप से उत्पादन के साधनों से स्वाधीन; अर्थात् संपत्तिहीन मजदूरों का अस्तित्व , उन "सर्वहारा" लोगों का अस्तित्व जो अपनी श्रम-शक्ति को बेचे बिना अपना अस्तित्व बनाये नहीं रख सकते।

अतिरिक्त मूल्य को बढ़ाने के दो प्रधान साधन हैं - कार्य-दिवस लम्बा करने से (“निरपेक्ष अतिरिक्त मूल्य") और आवश्यक कार्य- दिवस छोटा करने से (“ सापेक्ष अतिरिक्त मूल्य" )। पहले साधन का विश्लेषण करते हुए मार्क्स ने एक प्रभावशाली चित्र प्रस्तुत किया , कि मजदूर वर्ग ने काम के घंटे कम करने के लिए कैसे संग्राम किया और सरकार ने मजदूरी के घंटे बढ़ाने के लिए ( चौदहवीं सदी से सत्रहवीं तक) और उन्हें घटाने के लिए ( उन्नीसवीं सदी का फ़ैक्टरी विधान ) कैसे हस्तक्षेप किया। 'पूंजी' के प्रकाशित होने बाद सभी सभ्य देशों के

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