पृष्ठ:कार्ल मार्क्स, फ्रेडरिक एंगेल्स.djvu/२७

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बाहुल्य" अथवा "जनसंख्या की पूंजीवादी अतिवृद्धि" होती है। इसके अनेक और विभिन्न रूप होते हैं और इससे उत्पादन को अभूतपूर्व शीघ्रता से बढ़ाने के लिए पूंजी को एक अवसर मिलता है। हम इस बात को ध्यान में रखें और उसके साथ उधार पाने की सुविधाओं और उत्पादन के साधनों में पूंजी के संचय को भी ध्यान में रखें तो हमें वह कुंजी मिल जाती है जिससे पूंजीवादी देशों में समय-समय पर होनेवाले अति-उत्पादन के संकटों को हम समझ सकते हैं। ये संकट औसतन पहले प्रायः प्रति दस वर्ष में होते हैं, बाद में बीच का समय ज्यादा लम्बा और अनिश्चित हो जाता है। पूंजीवादी आधार पर जो पूंजी का संचय होता है, उससे हमें तथाकथित आदिम संचय का भेद करना चाहिए, जिसमें उत्पादन के साधनों से मजदूर बरबस हटा दिया जाता है, किसान ज़मीन से भगा दिये जाते हैं, पंचायती जमीन चुरा ली जाती है, औपनिवेशिक व्यवस्था और राष्ट्रीय कर्ज़ , व्यापार-रक्षा के विशेष नियम , आदि पाये जाते हैं। "आदिम संचय" से एक ओर "स्वाधीन" सर्वहारा का निर्माण होता है, दूसरी ओर पैसे के स्वामी , पूंजीपति का।

मार्क्स ने "पूंजीवादी संचय को ऐतिहासिक प्रवृत्ति” को बड़े सुन्दर ढंग से व्यक्त किया है: प्रत्यक्ष उत्पादकों की निर्मम दस्युता से, और अति निम्न कोटि की , जघन्य , क्षुद्र और पतित आकांक्षाओं की प्रेरणा से लूट-खसोट की जाती है। किसान और दस्तकार की स्वअर्जित व्यक्तिगत सम्पत्ति, कहना चाहिए , एकान्त और स्वतंत्र श्रमजीवी व्यक्ति के अपने श्रम के औज़ारों और साधनों के साथ एकीभूत हो जाने पर आधारित होती है। उसकी जगह पूंजीवादी व्यक्तिगत सम्पत्ति ले लेती है जो दूसरों के नाममात्र स्वाधीन श्रम पर, अर्थात् दूसरों की मजूरी पर, निर्भर है.. अब जिसका सम्पत्तिहरण करना है, वह अपने लिए काम करने वाला मजदूर नहीं है वरन् बहुत से मजदूरों का शोषण करनेवाला पूंजीपति है। यह अपहरण पूंजीवादी उत्पादन में निहित नियमों की क्रिया से , पूंजी के केन्द्रीकरण से सम्पन्न होता है। एक पूंजीपति हमेशा कई औरों की जान लेता है। इस केन्द्रीकरण अथवा कुछ पूंजीपतियों द्वारा बहुतों के अपहरण किये जाने के साथ-साथ नित बढ़ते हुए पैमाने पर श्रम

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