कमाई का एक भाग भी नियमित रूप से पूंजीवादी समाज को अर्थात् पूंजीवादी वर्ग के हवाले कर देता है और “निजी स्वामित्व के बहाने आयरिश काश्तकार के दर्जे तक पहुंच जाता है"। ('फ्रांस में वर्ग-संघर्ष') ऐसा क्यों होता है कि “जिन देशों में छोटे-छोटे काश्तकारों की संख्या अधिक होती है, वहां पूंजीवादी उत्पादन-पद्धति वाले देशों की अपेक्षा अनाज की कीमत कम होती है" ? ( 'पूंजी', खंड ३, पृष्ठ ३४०) इसका उत्तर यह है कि अपनी अतिरिक्त पैदावार का एक भाग किसान समाज को (अर्थात् पूंजीवादी वर्ग को) यों ही दान कर देता है। (अनाज और खेती से पैदा होनेवाली दूसरी चीज़ों की ) 'यह कम क़ीमत उत्पादकों की निर्धनता का भी परिणाम है और उनके श्रम की उत्पादिता का परिणाम किसी भी तरह नहीं है।" (वहीं।) पूंजीवाद में टुटपुंजिया खेती , जो टुटपुंजिया उत्पादन का साधारण रूप है, निर्जीव होकर मुरझा जाती है और समाप्त हो जाती है। "छोटे किसानों की सम्पत्ति स्वभाव से ही इस संभावना को दूर रखती है कि श्रम के उत्पादन की सामाजिक शक्तियों का विकास हो, श्रम के सामाजिक रूप हों, पूंजियों का सामाजिक केन्द्रीकरण हो, बड़े पैमाने पर गोरू पाले जायं और कृषि में विज्ञान का अधिकाधिक उपयोग किया जाय। ब्याज और कर-व्यवस्था उसे हर जगह निर्धन बनाएगी। जमीन खरीदने में पूंजी के ख़र्च के कारण खेती से यह पूंजी खिंच आती है उसके साथ उत्पादन के साधनों का विराट ह्रास और स्वयं उत्पादकों का अलगाव पैदा होता है।" ( सहकारी-संस्थाएं अर्थात् छोटे किसानों की जमातें असाधारण रूप से प्रगतिशील पूंजीवादी भूमिका पूरी करती हुई भी इस प्रवृत्ति को निर्बल बनाती हैं, उसका नाश नहीं करतीं। इसके सिवा यह न भूलना चाहिए कि ये सहकारी संस्थाएं धनी किसानों के लिए बहुत कुछ करती हैं, और आम गरीब किसानों के लिए बहुत कम , प्रायः कुछ नहीं करतीं। यह भी न भूलना चाहिए कि ये संस्थाएं स्वयं खेत मजदूरों की शोषक हो जाती हैं। ) “मनुष्य की शक्ति का भारी अपव्यय भी होता है। उत्पादन की परिस्थितियों में ह्रास की निरन्तर वृद्धि और उत्पादन साधनों की
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