शक्तियों की जीत हुई और मार्क्स पर पहले मुकदमा चला दिया गया (६ फ़रवरी १८४९ को वह बरी कर दिये गये) और फिर १६ मई १८४६ को उन्हें जर्मनी से देशनिकाला दे दिया गया। वह पहले पेरिस गये, जहां से १३ जून १८४६९ के जलूस के बाद, वह निकाल दिये गये। इसके बाद वह लन्दन चले गये और वहीं उन्होंने जीवन के शेष दिन बिताये।
मार्क्स और एंगेल्स के पत्र-व्यवहार से (१९१३ में प्रकाशित) मार्क्स के प्रवासी-जीवन की कठोरता पर प्रकाश पड़ता है। मार्क्स और उनके परिवार को दुःसह निर्धनता का सामना करना पड़ा। एंगेल्स ने आत्मत्याग करके मार्क्स की आर्थिक सहायता न की होती, तो न केवल वह 'पूंजी' को ही पूरा न कर पाते , वरन् अभावग्रस्त होकर वह निश्चय ही मर मिटते। इसके अलावा निम्न-पूंजीवादी और साधारणतः गैर-सर्वहारा समाजवाद के प्रचलित सिद्धान्तों और प्रवृत्तियों ने मार्क्स को निरन्तर ही निर्ममता से लड़ते रहने पर बाध्य किया। कभी-कभी उन्हें भयानक और एकदम भद्दे व्यक्तिगत आक्षेपों का उत्तर («Herr Vogts*) देना पड़ता था। प्रवासी राजनीतिक मण्डलों से दूर रहते हुए, मार्क्स ने राजनीतिक अर्थशास्त्र के अध्ययन को अपना अधिकांश समय देते हुए, कई ऐतिहासिक कृतियों में (‘साहित्य’ देखिये) अपने पदार्थवादी सिद्धान्त को विकसित किया। 'राजनीतिक अर्थशास्त्र की समालोचना' (१८५९) और पूंजी' (खंड १, १८६७) में मार्क्स ने इस विज्ञान में क्रान्तिकारी परिवर्तन कर दिया। (आगे देखिये - 'मार्क्स का सिद्धान्त’)।
छठे दशक के अन्तिम वर्षों तथा सातवें दशक में जनवादी आन्दोलनों की लहर फिर उठने लगी, इससे मार्क्स फिर राजनीतिक कार्यक्षेत्र में उतर पड़े। २८ सितम्बर १८६४ को 'अन्तर्राष्ट्रीय मजदूर सभा' - वही प्रसिद्ध पहली इंटरनेशनल - की लन्दन में नींव डाली गयी। मार्क्स इस संगठन के प्राण थे। उसके पहले 'सम्भाषण' के लेखक थे और पचीसों प्रस्तावों, वक्तव्यों, घोषणापत्रों को उन्होंने ही लिखा था। मार्क्स ने विभिन्न देशों के मज़दूर आन्दोलनों को एक किया ; गैर-सर्वहारा तथा मार्क्सवाद से
- 'श्री फ़ोग्ट'।-स०
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