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पृष्ठ:कार्ल मार्क्स पूंजी १.djvu/१०१

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पूंजीवादी उत्पादन . चल रही है कि विनिमय-मूल्म के निर्माण में प्रकृति का कितना हाथ है। विनिमय-मूल्य चूंकि किसी भी वस्तु में लगाये गये श्रम की मात्रा को व्यक्त करने का एक खास सामाणिक डंग होता है, इसलिये प्रकृति का उससे ठीक उसी प्रकार कोई सम्बंध नहीं होता, जिस प्रकार उसका विनिमय के वर-कम को निश्चित करने से कोई सम्बंध नहीं होता। उत्पादन की वह प्रणाली, जिसमें पैदावार माल का रूप धारण कर लेती है या जिसमें पैदावार सीधे विनिमय करने के लिये पैदा की जाती है, पूंजीवादी उत्पादन का सबसे अधिक सामान्य और सबसे अधिक अल्प-विकसित रूप है। इसलिये वह इतिहास के बहुत शुरू के दिनों में ही दिखाई देने लगती है, हालांकि उस वक्त वह प्रावकल की तरह इतने जोरदार एवं प्रतिनिधि रूप में सामने नहीं पाती है। अतएव उस जमाने में उसके साथ जुड़ी हुई बड़-पूजा को अपेक्षाकृत अधिक आसानी से समझा जा सकता है। लेकिन जब हम अधिक गेस म्पों पर पाते हैं, तो यह दिखावटी सरलता भी गायब हो जाती है। मुद्रा-प्रणाली की भ्रांतियां कहां से पैदा हुई? इस प्रणाली के अनुसार, बब सोना और चांदी मुद्रा का काम करते हैं, तो वे पैदावार करने वालों के बीच किसी सामाजिक सम्बंध का प्रतिनिधित्व नहीं करते, बल्कि कुछ अजीबोगरीब सामाजिक गुण रखने वाली प्राकृतिक वस्तुओं के रूप में नजर पाते हैं। और माधुनिक प्रशास्त्र को लीजिये, गो मुद्रा-प्रणाली को बहुत तिरस्कार की दृष्टि से देखता है। किन्तु जब कभी वह पूंजी पर विचार करने बैठता है, तब उसका अंधविश्वास क्या दिन के प्रकाश की तरह स्पष्ट नहीं हो जाता? पौर प्रशास्त्र को इस क्रिनिमोक्रेटिक प्रांति से छुटकारा पाये हुए ही अभी कितने दिन हुए हैं कि लगान का उद्भव-स्रोत समाज नहीं, बल्कि घरती है ? जो बात मागे पाने वाली है, उसकी अभी से चर्चा न करने की दृष्टि से हम माल-रूप से सम्बंध रखने वाला केवल एक उदाहरण और देकर संतोष कर लेंगे। यदि माल जुन बोल पाते, तो वे कहते हमारे उपयोग मूल्य में इनसानों को दिलचस्पी हो सकती है। पर वस्तुओं के रूप में वह हमारा अंश नहीं है। वस्तुओं के रूप में हमारा अंश हमारा मूल्य है। मालों के रूप में हमारा स्वाभाविक पादान-प्रदान इस बात का प्रमाण है। एक दूसरे की दृष्टि में हम विनिमय- मूल्यों के सिवा और कुछ नहीं हैं। अच्छा, अब जरा सुनिये कि ये ही माल प्रशास्त्रियों के मुल से किस तरह बोलते हैं। "मूल्य (अर्थात् विनिमय-मूल्य) चीजों का गुण होता है, और धन- सम्पदा (अर्थात् उपयोग-मूल्य) मनुष्यों का। इस पर्व में मूल्य का लाजिमी तौर पर मतलब होता है विनिमय, धन-सम्पदा का यह मतलब नहीं होता। 'धन-सम्पदा (उपयोग-मूल्य) मनुष्यों का गुण है, मूल्य मालों का गुण है। कोई मनुष्य या कोई समाज धनी होता है, पर कोई मोती या हीरा मूल्यवान होता है... कोई मोती या होरा" मोती या हीरे के रूप में "मूल्यवान . .. "14 इतिहास है। दूसरी ओर, दोन कियोत बहुत पहले अपनी इस गलत समझ का खमियाजा प्रदा कर चुका है कि मध्य युग के सूरमा सरदारों जैसा माचरण समाज के सभी पार्षिक रूपों से मेल खा सकता है। 1 "Observations on certain verbal disputes in Political Economy, particu- larly relating to Value, and to Demand and Supply" (RUTE go afects विवादों के विषय में, खासकर मूल्य और मांग तथा पूर्ति से सम्बंध रखने वाले विवादों के विषय में, कुछ विचार'), London, 1821, पृ. १६ । .